Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 14
________________ क्षमां कुरु । सभी शिष्यों ने अगले दिन पाठ सुना दिया। एक शिष्य ने पाठ न सुनाया। वह दूसरे और तीसरे दिन भी पाठ न सुना पाया, तो गुरु ने डाँट भी लगाई और चाँटा भी। चाँटा खाकर शिष्य ने हाथ जोड़कर निवेदन किया - सर! अब पाठ याद हो गया। गुरु ने पूछा - चाँटा खाने से पहले पाठ याद न हुआ, चाँटा खाते ही याद हो गया। आखिर इसका रहस्य क्या है? शिष्य ने कहा - सर! जब आपने डाँट लगाई और मुझे क्रोध न आया तभी तो पाठ याद हुआ कहलाएगा। केवल शब्दों को रटना ही शिक्षा है, तब तो वह मुझे उसी वक़्त याद हो गया था जब आपने मुझे पाठ दिया था। चाहे शिक्षा हो या धर्म - जीवन में हृदयस्थ होने से ही वह आत्मसात् होता है। धर्म और कुछ नहीं, जीवन जीने की कला है। प्रेम, शांति, सच्चाई, क्षमा और भाईचारे के मूल्यों को जीने की कला। धर्म प्राणी मात्र के कल्याण के लिए है। धर्म इंसान को आरोग्य, समृद्धि, सफलता, माधुर्य, सहयोग और आध्यात्मिक सुख प्रदान करता है। धर्म हमारे पाँव की पायजेब है, हाथों की ऊर्जा है, गले का हार है, आँखों की रोशनी है, मन का मीत है, हृदय का मंदिर है। धर्म सबका मंगल करने वाला है। जिस कार्य के द्वारा स्वयं का भी मंगल हो और दूसरों का भी मंगल हो, वह कार्य ही धर्म है। धर्म हमें सकारात्मक सोच, निर्मल स्वभाव, मधुर वाणी, सद् व्यवहार और आपसी सहयोग के लिए प्रेरित करता है। धर्म मानवता को जोड़ने का काम करता है। जो परम्पराएँ धर्म के द्वारा इंसानियत को तोड़ने की बात करती हैं वे परम्पराएँ धर्म नहीं, हठधर्मिताएँ हैं । धर्म विशाल है, हमें भी धर्म के प्रति विशाल दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। | 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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