Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 28
________________ एक भूल-भूलैया अवश्य होता है। बाकी वह रहता भी अकेला ही है। हम अपने को पहचानें । हम अमृत पुत्र हैं, अपनी अमृत-धर्मिता को याद करें। मैंने कभी अपना आत्म मूल्यांकन करते हुए गुनगुनाया है - मैं पुण्य रूप था, पाप बना मेरा जीवन है पंक सना। गढ़नी थी उज्ज्वल मूर्ति एक, पर मैं धुंधला इतिहास बना। हमारी दुर्दशा तो देखो, हम क्या से क्या हो रहे हैं? मनुष्य के बाने में भी पशुता सिर चढ़ बैठी है। इतना स्वार्थ ! झूठ-साँच! क्या यही हमारा आत्म-गौरव है? क्या यही कुल-गौरव, समाज-गौरव या धर्म-गौरव है? हमने विषधर साँप देखे हैं, पर यह न भूलें कि मनुष्य भी विषधर है। मनुष्य जनम-जनम का विषपायी है। उसके जन्म-जन्म के संस्कारों में इतना ज़हर है कि वह अमृत-घर में जाकर भी वहाँ से विषपान कर आता है। शिक्षा की कमी तो दिन-ब-दिन मिटती जा रही है, पर अन्तर-बोध न होने के कारण वह धूम्रपान को सुख मानकर अपनी धमनियों में जहर फैला रहा है। बेचैनी से बचने के लिए शराब पीकर शरीर-शक्ति को काट रहा है। पौष्टिकता के नाम पर माँसाहार करके मानो अपने-आपको ही खा रहा है। तनाव, चिंता, प्रतिहिंसा, अवसाद जैसे तत्त्व जीवन को और विषपायी बना रहे हैं। मनुष्य जो अपने आप में कल्पवृक्ष है, विषवृक्ष बन रहा है। मानवजाति ने बड़े तीखे जहर पाल रखे हैं। कभी देखा, क्रोध कितना ज़हरीला होता है? सर्प का जहर तो औरों को घात पहुँचाता है, पर क्रोध औरों को तो आग लगाता ही है, खुद को भी सुलगाता है। | 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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