________________
जीवन न मंगल है और न अमंगल । वह कोरे कागज की तरह है। यह हम पर निर्भर है कि हम उस पर कीचड़ उछालें या इन्द्रधनुष उकेरें। राक्षस और देवता दोनों जीवन के गिरते-चढ़ते आयाम हैं। मनुष्यता दोनों के मध्य है। मनुष्य यदि अपने भीतर बैठे स्वामी से प्रेम करने लग जाए तो जीवन ही मानवता का वह पहला मंदिर होगा जहाँ से सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की घण्टियों की टंकारें सारे जहान में गूंजती हुई दिखाई देंगी। खुद को भूल बैठने के कारण ही व्यक्ति माया के मकड़जाल में उलझा हुआ है।
आत्म-बोध के अभाव में ही मनुष्यात्मा स्वयं को भूली-बिसरी बैठी है। वह भीतर बैठे भगवान को नहीं, वरन् भीतर के स्वार्थ को ही मूल्य देती रही है। उसके लिए जीवन अतीत का नया संस्करण नहीं, वरन् मन की खटपट के चलते शरीर से शरीर की खिलवाड़ भर है।
किसी समय एक घटना बहुचर्चित रही है कि एक शेर का बच्चा अपना आपा भूलकर भेड़ों के टोले में जा घुसा। जात का असर! वह गरजने की बजाय 'मिमियाया' करता। इस तरह उसकी जिंदगी ही गुज़र गयी, पर जब उसने दूसरे शेरों को गरजते हुए सुना और भेड़ों पर टूटते देखा तो पहली बार उसके अन्तरमन में यह प्रश्न कौंधा - 'वो' भेड़ नहीं हैं, तो फिर मैं कौन हूँ? अपने इस प्रश्न के जवाब में वह काफी भटका, वर्षों विचलित और अभीप्सित रहा। एक दिन अकेले ही वह जंगलों और गुफाओं की ओर चल पड़ा। रास्ते में पड़े सरोवर में पानी पीने के लिए उतरा। पानी शान्त और निस्तरंग था। वह आईने का काम कर गया। उसे आत्मबोध हुआ। जग उठी सत्ता – भीतर सोये पड़े सिंहत्व की, निजत्व की।
मनुष्य का दुर्भाग्य ! उसने सदा मुखड़ा ही दर्पण में देखा, अपने
181
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org