Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 96
________________ 3. मैं अपने विचारों को आत्म-भावना से भावित रखते हुए तनमन में परमात्मा के प्रसाद और पुलक का अनुभव करूँगा। 4. मैं विचारों में किसी तरह का दुराग्रह न रखते हुए सत्य का समर्थन और ग्रहण करूँगा। 5. मैं प्रतिदिन स्वाध्याय का संकल्प लेते हुए तत्त्व-चिन्तन करूँगा। विचारों में वे दीये ज्योतिर्मय करूँगा जो स्व-पर कल्याणकर हों, सत्य-शिव-सौन्दर्य के अनुरूप हों। आचार-शुद्धि हमारे आचार-व्यवहार और बोल-बरताव ही हमारे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति बनते हैं । मनुष्य अपने आचरण के कारण साधु-पुरुष भी कहलाता है और शैतान भी। पवित्र आचरण साधुता है, अपवित्र आचरण दुश्चरित्रता है। निर्मल और पवित्र आचार-व्यवहार मनुष्य को देवत्व प्रदान करता है। ___ बात-बेबात में क्रोध कर बैठना, सनक चढ़ना, औरों को अपने से हीन मानना, उपेक्षा करना, गाली-गलौच करना हमारे व्यवहारगत दोष हैं। धूम्रपान या मद्यपान करना, ग़लत नज़र डालना, भीतर-बाहर का भेद रखना, छल-प्रपंच करना आचारगत दोष हैं । व्यक्ति तो क्या, समाज और देश तथा उसका नेतृत्व करने वाले भी इतने स्वार्थी और भ्रष्ट होने लगे हैं कि मानो कुए में ही भांग पड़ी हो। सभी सुधरें, अच्छी बात है। कम-से-कम हम तो ऊँचे उठे, देवत्व को जियें। आचार-शुद्धि के लिए विनम्रता और सहिष्णुता अनिवार्य चरण हैं । हम सबसे मिलें, चाहे स्त्री हो या पुरुष, सबके प्रति सम्मानपूर्ण मैत्री भरा व्यवहार रखें। किसी को कुछ भी बोलें या लिखें, पर उसमें 95 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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