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काम बुद्धि के निर्देशानुसार होना चाहिए। मन का तो हमें साक्षी होना है और बुद्धि का जीवन-संचालन के लिए उपयोग करना है । यदि इंसान को साक्षी होने का गुर मिल जाए, साक्षित्व की चाबी हाथ लग जाए तो भीतर-ही-भीतर चलती रहने वाली अनर्गल अन्तर्वार्ताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। तनाव और चिंता को जर्जर किया जा सकता है। हम अपने मन को ऊर्जा देना कम करें ताकि बुद्धि की शक्ति बढ़े और इस तरह हमारा जीवन विज्ञानमय हो जाए। मन पर बुद्धि का अनुशासन होना ही ध्यानयोग की सफलता है ।
ध्यान साँसों या संवेदनाओं के अनुभव की कोई विधि मात्र नहीं है । विधियाँ तो प्रवेश के लिए होती हैं। वास्तव में जब विधि छूट जाती है, हम अपने तन के तल से ऊपर उठ जाते हैं, मन की क्रियाएँ शून्यशांत हो जाती हैं, तभी अन्तस्- आकाश में दृष्टा साकार होता है, ध्यान सम्पूर्ण होता है। ध्यान तो अपने में ही अपना विश्राम है । उस तत्त्व की पहचान है जिसकी मुक्ति की हमारी अभीप्सा है। ध्यान तो अन्तस् का स्पर्श है, मौन में बैठक है, आकाश भर आह्लाद है। न अतीत की स्मृतियों का बोझ और न ही भविष्य की कल्पनाओं का शोर । जो है, उसी को आनन्दपूर्वक जीना है । चित्त का वर्तमान क्षण में स्थिर होना ध्यान की पहली और अंतिम प्रेरणा है ।
संबोधि - ध्यान की चारों विधियाँ एक प्रयोग भर हैं, भीतर के रिक्त आकाश में प्रवेश पाने के लिए। मानव-मन में मुक्ति की चेतना जग जाए, एक बार अन्तरबोध हो जाए तो फिर तो सारे मार्ग प्रशस्त हैं । अगर कोई यह सोचे कि दो - पाँच दिन का ध्यान का अभ्यास करके बड़बड़ाते, धमाल मचाते मन को चुप किया जा सकता है, तो यह सम्भव नहीं है। जल्दबाजी न करें। धीरज धरें। वह धीरे-धीरे धीमा पड़ता है । अन्तत: शांत और शून्य भी होता है। परिणाम नहीं, बीज के सिंचन पर ध्यान दें, फल-फूल अनायास खिल आएँगे ।
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