Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 100
________________ हर व्यक्ति अपने मूल स्रोत तक पहुँच सकता है। हम अपनी देह से, स्मृतियों से, संबंधों से, मन के विकल्पों से, चित्त की अनर्गलता से स्वयं को अलग हटाकर देखें। धीरे-धीरे गहराई आ जाएगी और अन्ततः अन्तस्-आकाश में बैठी मौन सत्ता के साथ हमारे संवाद और साक्षात्कार होने में कहीं दुविधा नहीं रहेगी। जीवन दिव्य और विमुग्ध हो, इसके लिए हमें निरन्तर सावचेत रहना चाहिए। दिव्य जीवन जीने के लिए हमें उन कामों को करने से परहेज रखना चाहिए जिनसे हमारी मानसिक शांति भंग हो । मन ही बिगड़ गया तो सब कुछ बिगड़ा ही समझो। मन विकृत हो गया तो मानो इन्द्रियाँ भी विकृत हो गयीं। किसी भी काम का अच्छा या बुरा होना, बहुत कुछ तो मन पर ही निर्भर करता है। शांत और सधे हुए मन से जिओ तो जीवन में चूक की कहीं कोई संभावना नहीं है। __ हमें जब-तब अपने मन को देखते रहना चाहिए। अमन के फूल खिलते रहने चाहिए। भीतर कोई खाई बने या चक्रवात उठे, उससे पहले ही हमें उस पर ध्यान देकर उसका नियंत्रण कर लेना चाहिए। आत्म-दर्शन अथवा आत्म-मुक्ति के लिए मन, चित्त तथा बुद्धि का निर्मलीकरण प्राथमिक अनिवार्यता है। जैसे स्नान किये बगैर मंदिर जाना हम अच्छा नहीं मानते, वैसे ही अन्तरमन के मैल को धोये बगैर भीतर बैठे देवता तक कैसे पहुँच सकेंगे? वस्तुतः हमें अपने मन का आसन बदलना चाहिए। मन की बैठक साफ-सुथरी हो, यह ज़रूरी है। दर्शन-शुद्धि, विचार-शुद्धि और आचार-शुद्धि मन का परिमार्जन करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । हम शांत मन से किसी भी विषय-वस्तु का चिंतन करें। बोलें तब भी बड़ी शांति से, बड़ी मिठास से। जीभ में खराश न हो, आँखें लाल न हों। हमारी वाणी, हमारा व्यवहार, हर काम नपा-तुला होना | 99 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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