Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 99
________________ ध्यान शांत मनस् की साधना है। गूढ़मन की गहराई में उतरने पर ही चेतनागत समस्त संभावनाओं से साक्षात्कार होता है, आनन्द और परम-धन्यता का भाव घटित होता है। गहन मौन में स्वयं से संवाद होता है । यह अनुभव-दशा है, अनुभव से भी बढ़कर बोध-दशा है। जिसे हम आत्म-दर्शन कहते हैं, वह वास्तव में स्वयं का दर्शन है, सत्य का दर्शन है। ध्यान, अपने बारे में सच्चाई की खोज है, अस्तित्व के गर्भ में प्रवेश है। अपने आपको शरीरगत एवं इन्द्रियगत अनुभूति तथा संवेदना से ऊपर उठाते हुए शांत चित्त से अपने भीतर बैठे शाश्वत परम सत्य को जीना ही ध्यान है, संबोधि है। मनुष्य सरल, प्रसन्न और निर्विकार जीवन जिए, ध्यान-भावना के पीछे यही उद्देश्य है। हम सुबह-शाम ध्यान करें। प्राथमिक दौर में यह ज़रूरी है, पर हमें तो हर काम ध्यानपूर्वक करना चाहिए। जब भी फुरसत मिले, हमें भीतर गोता लगा लेना चाहिए कि इस समय हमारे अन्तरमन में क्या हो रहा है, मन कैसे माया-महल रच रहा है। अपना निरीक्षण तो होना ही चाहिए, ताकि अंधकार को बाहर निकाला जा सके, प्रकाश की पहल हो सके।आखिर ध्यान की कोई भी विधि क्यों न हो, सबका सार एक ही है - बाहर से भीतर मुड़ो। भीतर का कषाय-कल्मष मिटाओ और परम शांति में जिओ। यद्यपि ध्यानपूर्वक जीने के पीछे आत्म-निष्ठा ही मुख्य है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम समाज से कट जाएँ अथवा श्रम से विमुख हो जाएँ। हमें अन्तरतम की गहराई में भी डूबे रहना चाहिए और समाज में भी सम्पर्क बनाये रखना चाहिए। समाज में जाएँ सेवा और प्रेम के लिए; ध्यान करें अन्तस्तल की गहराई में डूबने के लिए। मूल स्रोत के साथ हमारा संबंध नहीं टूटना चाहिए। 981 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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