Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म में प्रवेश सफल और सार्थक जीवन जीने के आध्यात्मिक नियम श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रभु शरणं For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान चिंतक पूज्य श्रीचन्द्रप्रभ का प्रभावी मार्गदर्शन धर्म में प्रवेश सफल और सार्थक जीवन जीने के आध्यात्मिक नियम For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन - वर्ष : धर्म में प्रवेश श्री चन्द्रप्रभ मई, 2012 तृतीय संस्करण प्रकाशन : श्री जितयशा फाउंडेशन बी-7, अनुकम्पा द्वितीय, एम.आई. रोड, जयपुर (राज.) आशीष : गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी म. मुद्रक : हिन्दुस्तान प्रेस, जोधपुर COPL/9763 मूल्य : 25/ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश धर्म का आविष्कार हुआ, क्योंकि मनुष्य अशान्त था। धर्म खोजा गया, ताकि मनुष्य शान्त हो सके। पर धर्म का जो रूप सामने आया, उससे मनुष्य शान्त न हो सका । शान्त हो सके सिर्फ़ वे व्यक्ति विशेष जिन्हें धर्म की सही समझ थी और वह उस समझ के अनुसार आचरण करने की सुदृढ़ता जिनके चरित्र का अंग बनी । शेष मानवजाति के लिए धर्म या तो अत्यधिक दुरूह बना रहा या कोरे क्रियाकाण्ड का पर्याय । नित्य नये पंथ, नई-नई उपासना पद्धतियाँ प्रकट और विलीन होती रहीं, पर संत्रस्त मनुष्यता को राहत न मिली, तो न मिली। आज तक व्यक्ति और समाज धर्म के किसी सरल पथ की तलाश में हैं, ऐसे पथ की तलाश में जो केवल संबुद्ध आत्माओं का पथ न हो बल्कि सामान्य जन के लिए भी बोधगम्य हो । — 'धर्म में प्रवेश' इसी तलाश का परिणाम है । सर्व श्रद्धेय पूज्य श्री चन्द्रप्रभ की चैतन्य - मनीषा ने करुणा - द्रवित होकर धार्मिक सिद्धान्तों की दुरूह चट्टानों में से सरलता के छोटे-छोटे निर्झर तलाशे हैं For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उनका अमृत-जल आदमी से लेकर सुधिजनों तक इस पुस्तकाकार में वे अपने आशीर्वाद सहित भेज रहे हैं। निश्चय ही यह संसार की महानतम पुस्तकों में एक है। यह एक प्रकार से धर्म के स्वरूप को दरशाने वाली गीता है। इसका हर एक चेप्टर आपके लिए मील का पत्थर है। राह दिखाने वाले पूज्यश्री के ये सन्देश जीवन, धर्म और अध्यात्म के बुनियादी उसूल हैं। इन्हें शांति और मुक्ति की कुंजी समझना चाहिए। इनके माध्यम से उन्होंने मानव-जाति को एक सार्थक नई दिशा-दृष्टि देने का प्रयत्न किया है। हमारे जीवन में धार्मिक स्वच्छता एवं आध्यात्मिक गहराइयों को जन्म देने के लिए यह पुस्तक एक सशक्त माध्यम है। इसे घर-घर पहुँचना चाहिए, घर-घर पढ़ा और जीया जाना चाहिए। विश्वास है कि यह पुस्तक पाठकों में धर्म की सही समझ विकसित करने और मनुष्य मात्र की शांति का मार्ग प्रशस्त करने में सफल होगी। मुक्ति के साम्राज्य में इसका प्रवेश हो, इसी सद्भावना के साथ प्रणाम! - नि:शेष For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदर के पृष्ठों में ... 1. धर्म और मनुष्य का उससे सम्बन्ध 2. स्वर्ग और नरक की समझ 3. परमात्मा : कहाँ है, कैसा है? 4. पूर्वजन्म : पुनर्जन्म : पूर्णजन्म 5. प्राप्त करें आत्म-परिचय 6. पहचानें, जीवन का अंतरंग 7. आत्म-स्मृति और स्थिति 8. आत्म-शुद्धि के तीन चरण 9. मानव-मुक्ति की पहल 9-22 23-33 34-46 47-56 57-66 67-77 78-86 87-96 97-105 For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और मनुष्य का उससे सम्बन्ध जीवन एक लम्बी तीर्थयात्रा है। जन्म के साथ यह यात्रा प्रारम्भ होती है और मृत्यु तक पहुँचकर यात्रा पूर्ण होती है। इस यात्रा में जीवन के सपाट रास्ते भी हैं और ऊबड़-खाबड़ खाइयाँ भी; कठिनाइयों की पथरीली चोटियाँ भी आती हैं तो सफलता के स्वर्ण-शिखर भी। यहाँ बसन्त-पतझड़, दोस्ती-दुश्मनी, अमीरी-गरीबी, सुख-दुःख - हर तरह की सम्भावना है। यहाँ सागर की लहरों में खेलने का आनन्द है तो डूबने का ख़तरा भी है। सुख-सम्मान की हरियाली है तो दुःखअपमान के सूखे पत्तों की खरखराहट और काँटों की चुभन भी है। यहाँ जीवन में फूल हैं तो फूलों पर मँडराने वाले भौरे भी हैं। सुबह है तो साँझ भी है। एक आँख में खुशियाँ हैं तो दूसरी में आँसू भी हैं। इसी का नाम तो जिंदगी है - हँसती-खिलती, रोती-बिलखती। ___ सुख और समृद्धि के नाम पर निरन्तर संघर्ष जारी रहता है और इस संघर्ष के साथ चलता है मनोमन एक विचित्र-सा अन्तर्द्वन्द्व, धुंए-सी घुटन, पीड़ा की काँटों-सी कसक। इस हर उठापटक से बचता है | 9 For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल वह, जो झूठी मृग-मरीचिका की पागल-दौड़ से स्वयं को अलग कर लेता है। जो लोग जीवन को तीर्थयात्रा मानकर जी रहे हैं, वे हर तरह की बाधाओं के बावजूद सुख-शान्ति के स्वामी बने रहते हैं। अन्य तीर्थ तो ईंट-चूने-पत्थर के बने होते हैं, पर जीवन तो चलताफिरता तीर्थ है। जीवन को शांति, होश और बोधपूर्वक जीना एक समग्र तीर्थ-यात्रा है। शान्तिपूर्वक हर दिन की शुरुआत करना और शान्तिप्रिय बनकर ही हर दिन का समापन करना इस तीर्थ-यात्रा का सबसे बड़ा सुकून है। मनुष्य तो अनगिनत शक्तियों और सम्भावनाओं का संवाहक है। वह मिट्टी से बना है और उसे एक दिन मिट्टी में ही समा जाना है। अगर वह ऐसा कोई भव्य पराक्रम करे तो वह मात्र मिट्टी नहीं रहेगा, मिट्टी का वह दीया बन जाएगा जिसमें दिव्यता की रोशनी जगमगाती है। वह अपने आपको अमृत बना सकता है, मनुष्य के शरीर में भी देवता बनकर जी सकता है। जीवन में दिव्यता आ जाए तो मनुष्य के लिए मनुष्य होना बड़े गौरव की बात है। देवत्व मनुष्य-जीवन का ही परम विकास है। पशु और प्रभु दोनों मनुष्य के ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर वह मनुष्यत्व से गिरता है तो वह पशु है। अगर वह मनुष्यत्व से ऊपर उठता है तो वह मनुष्य के रूप में भी प्रभु है। डीओजी डॉग कहलाता है, पर अगर इसकी फितरत उलट दी जाए तो यही जीओडी गॉड बन जाता है। यदि इंसान अपनी सोच और स्वभाव को सरल, सौम्य और उदार बना ले तो निश्चित तौर पर हमारे क़दम देवत्व की ओर होंगे। स्वार्थ, आपसी छीना-झपटी, ईर्ष्या और क्रोध जैसे मनोविकारों से घिरकर तो मनुष्य पशु ही कहलाएगा। दिव्यता हो मनुष्य के कर्म में, व्यवहार में, भाषा में, सोच और आत्मा में। जिसके पास दिव्यता है 10 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही देवता है। जीवन किसी बाँस की पोंगरी की तरह है। अगर जीने की कला आ जाए तो यही बाँस की पोंगरी संगीत की स्वर-लहरियों को जन्म देने वाली बाँसुरी बन जाएगी, अन्यथा यही बाँस की पोंगरी आपसी स्वार्थों के चलते केवल लड़ने-लड़ाने के लिए बाँस के टुकड़े का काम करेगी। मनुष्य तो चलता-फिरता मंदिर है। जब मनुष्य ही एक मंदिर है तो इसमें रहने वाला देवता व्यर्थ कैसे हो सकता है। मनुष्य का शरीर भले ही माटी का हो, पर इसमें रहने वाला देवता दीये में जलती ज्योत की तरह चिन्मय है। हर मनुष्य परम सत्ता से सम्पन्न है। वह शान्ति, प्रेम और ज्ञान का सागर है। आनन्द उसका मूल स्वभाव है और मुक्ति उसका अधिकार । अपने आपको भुला दिये जाने के कारण ही उसकी सारी विशेषताएँ विस्मृत हो गई हैं। इस विस्मृति ने ही मनुष्य को दुःखी, स्वार्थी और विकृत बनाया है। जीवन के प्रति सकारात्मक रुख अपनाकर हम जीवन को प्रभु का प्रसाद और वरदान बना सकते हैं। हो सकता है कि हमारे जीवन में अनेक तरह की छोटी-मोटी समस्याएँ हों। समस्याएँ जो भी हों, हम उनका समाधान तलाश सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी समस्या का समाधान निकालने की कोशिश ही नहीं करता, सच्चाई तो यह है कि ऐसी स्थिति में वह ख़ुद ही एक समस्या है। धर्म हमारे जीवन का सबसे सुन्दर समाधान है। धर्म का अर्थ है : धारण करना । जब हम धर्म को धारण करते हैं, तो धर्म हमें धारण कर लेता है। जन्म से कोई धार्मिक नहीं होता। धर्म को जीवन में धारण करने से ही व्यक्ति धार्मिक हुआ करता है। गुरु ने अपने शिष्यों और छात्रों को पाठ दिया - सत्यं वद, धर्मं चर, 11 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ conocer 12 For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमां कुरु । सभी शिष्यों ने अगले दिन पाठ सुना दिया। एक शिष्य ने पाठ न सुनाया। वह दूसरे और तीसरे दिन भी पाठ न सुना पाया, तो गुरु ने डाँट भी लगाई और चाँटा भी। चाँटा खाकर शिष्य ने हाथ जोड़कर निवेदन किया - सर! अब पाठ याद हो गया। गुरु ने पूछा - चाँटा खाने से पहले पाठ याद न हुआ, चाँटा खाते ही याद हो गया। आखिर इसका रहस्य क्या है? शिष्य ने कहा - सर! जब आपने डाँट लगाई और मुझे क्रोध न आया तभी तो पाठ याद हुआ कहलाएगा। केवल शब्दों को रटना ही शिक्षा है, तब तो वह मुझे उसी वक़्त याद हो गया था जब आपने मुझे पाठ दिया था। चाहे शिक्षा हो या धर्म - जीवन में हृदयस्थ होने से ही वह आत्मसात् होता है। धर्म और कुछ नहीं, जीवन जीने की कला है। प्रेम, शांति, सच्चाई, क्षमा और भाईचारे के मूल्यों को जीने की कला। धर्म प्राणी मात्र के कल्याण के लिए है। धर्म इंसान को आरोग्य, समृद्धि, सफलता, माधुर्य, सहयोग और आध्यात्मिक सुख प्रदान करता है। धर्म हमारे पाँव की पायजेब है, हाथों की ऊर्जा है, गले का हार है, आँखों की रोशनी है, मन का मीत है, हृदय का मंदिर है। धर्म सबका मंगल करने वाला है। जिस कार्य के द्वारा स्वयं का भी मंगल हो और दूसरों का भी मंगल हो, वह कार्य ही धर्म है। धर्म हमें सकारात्मक सोच, निर्मल स्वभाव, मधुर वाणी, सद् व्यवहार और आपसी सहयोग के लिए प्रेरित करता है। धर्म मानवता को जोड़ने का काम करता है। जो परम्पराएँ धर्म के द्वारा इंसानियत को तोड़ने की बात करती हैं वे परम्पराएँ धर्म नहीं, हठधर्मिताएँ हैं । धर्म विशाल है, हमें भी धर्म के प्रति विशाल दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। | 13 For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज धर्म के नाम पर जो 'धर्म' चलते हैं, वे सब पंथ और सम्प्रदाय हैं। सबकी अपनी-अपनी डफली है और अपने-अपने राग। हमें धर्म के दिखाऊ रूप पर गौर करने की बजाय इसके मूल स्वरूप पर गौर करना चाहिए। पूजा-पाठ करना धर्म का ऊपरी रूप है, वहीं दिल में ईश्वर से प्रेम करना धर्म का सच्चा स्वरूप है। धर्म जीवन में क्षमा, विनम्रता, सरलता, सत्य, त्याग, मर्यादा, अपरिग्रह और अनेकांत के आचरण का नाम है। जब मनुष्य आत्म-जागृत होता है, तभी जीवन में धर्म का जन्म होता है। अपने प्रति, अपने भीतर बैठी ध्रुवता के प्रति सचेत होने पर ही धर्म ईज़ाद होता है। धर्म या अध्यात्म किसी सुनसान पहाड़ी या नदिया के किनारे वटवृक्ष की छाया में नहीं जन्मते। इनकी जन्मस्थली तो मनुष्य का अन्तरहृदय है। जिनसे हमने जन्म लिया है, जो हमारे सहोदर और स्वजन हैं, उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना धर्म का पहला पाठ है। मनुष्य होकर मनुष्य के काम आना धर्म की दूसरी सिखावन है। अपने मन की कमजोरियों और उसके विकारों पर विजय प्राप्त करना धर्म की बुनियादी नसीहत है। धर्म मनुष्य की निजी विशेषता और उपलब्धि है। निजत्व से हटा दिये जाने के कारण ही मनुष्य के कल्याण के लिए जन्मा धर्म, खुद मनुष्य के लिए भारभूत बन गया है। लोग पूजा-पाठ और व्रतउपासना तो खूब कर लेते हैं लेकिन अपनी प्रेक्टिकल लाइफ में क्रोध, ईर्ष्या, छल-प्रपंच जैसे पाप भी बेझिझक कर लेते हैं। आज की युवा पीढ़ी धर्म के प्रेक्टिकल स्वरूप में विश्वास करती है, उसके दिखाऊ रूप में नहीं। यदि आप रोज मंदिर नहीं जाते हैं तो इससे भगवान कोई नाराज़ नहीं होने वाले और यदि रोज मंदिर जाते हैं तो भगवान कोई 14 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजी होने वाले नहीं। भगवान तो तब नाराज़ होते हैं जब आप किसी भूखे-प्यासे इंसान की मदद नहीं करते, अंधे को रास्ता नहीं दिखाते, सत्य को सत्य जानकर भी उससे मुँह मोड़ लेते हैं । धर्म वास्तव में सदाचार का नाम है, सद्विचार और मानवीय भाईचारे का नाम है। धर्म अन्तरात्मा की आवाज़ भी है । अन्तर्बोध से जीना धर्म की मूलभूत प्रेरणा है । जब से मनुष्य ने अपने भीतर की आवाज़ को सुनना बन्द कर दिया, तब से धर्म जो मानवता के पाँवों की पायजेब था. वही पाँवों की जंज़ीर बन गया। लोग धर्म के नाम पर , आपस में टूट गये । आज किसी नये धर्म की ज़रूरत नहीं है, ज़रूरत है केवल धागा बनकर मानवता को जोड़ने की । हमें ३६ के आँकड़े को उलटकर ६३ का मैत्रीपूर्ण अंक बनाना होगा । आज लोग धर्म के नाम पर लड़ते-झगड़ते हैं, आपस में बँट जाते हैं। ख़ून-खराबा तक कर बैठते हैं, मन्दिरों और इबादतगाहों में आग लगा देते हैं। प्रश्न है - क्या ऐसा करना धर्म है ? साम्प्रदायिक सौहार्द की बात हर मज़हब करता है, पर धर्म को लेकर सदियों से दंगेफसाद होते रहे हैं। अब किसी संत या समूह की परम्परा धर्म का रूप ले चुकी है। धर्म की असलियत और विराटता खो गई है। सागर छोटे-छोटे डबरों में उलझ गया है। हमें मानसरोवर का हंस बनना चाहिए था, पर हम कुँए के मेंढक बन गए हैं । सम्प्रदाय और परम्परा महज एक सामाजिक व्यवस्था भर हैं । इनका धर्म से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता । सम्प्रदाय क्रियाओं और रीति-रिवाजों को ज़्यादा महत्त्व देता है जबकि धर्म जीवन के शाश्वत मूल्यों को। दुनिया का कोई भी धर्म क्यों न हो, यदि वह रीति-रिवाज़ों को गौण कर दे तो सबके मूल्य और मापदण्ड एक समान हैं। सभी For Personal & Private Use Only 15 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील दिखाई देते हैं। कोई भी धर्म हमें आपस में लड़ना, वैर-विरोध रखना नहीं सिखाता। 'मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना, हिंदू हैं हमवतन हैं, हिंदुस्ता हमारा' धर्म हमें आपस में प्रेम रखना सिखाता है। कृपया हम धर्म का राजनीतिकरण न करें। राजनीति में धर्म का प्रवेश हो, यह राजनीति के लिए शुभ है, पर धर्म में राजनीति हो धर्म के लिए यह अशुभ है। धर्म को अब मानवीय हो जाना चाहिए तभी धर्म मनुष्य का कल्याण कर सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्म का जन्म ही मनुष्य के लिए हुआ है, मनुष्य का जन्म धर्म के लिए नहीं। भला जो मानवता का भला न कर सके, वह धर्म कैसे हो सकता है? वह कार्य ही धर्म है जिससे स्वयं का भी हित हो और औरों का भी। अमंगलकारी कृत्य, अमंगलकारी सोच, अमंगलकारी अभिव्यक्ति अधर्म ही है। धर्म का पहला लक्ष्य ही सबकी स्वस्ति-मुक्ति है। 'मंगल करना' धर्म का पहला कार्य है। परम्परा का बाना पहन चुके धर्म के नाम पर हम आपस में एक होना चाहेंगे, मानवता के मंच पर एकता के दीप जलाना चाहेंगे तो यह सम्भव नहीं लगता। हिन्दुस्तान में एक हजार वर्षों से हिन्दू भी रहते आए हैं और मुसलमान भी। कोशिशों में कमी नहीं रही, पर दोनों के दिल कभी एक नहीं हो सके। नतीजतन, धर्मानुरागी देश में भी धर्म-निरपेक्षता का संविधान बनाना पड़ा। जब तक अलग-अलग जाति, परम्परा, सम्प्रदाय के लोग इस देश या किसी देश में रहते रहेंगे, तब तक धर्म-निरपेक्षता या सर्वधर्म समानता का दृष्टिकोण ही श्रेष्ठ है। व्यक्ति-व्यक्ति की शुद्धि होनी चाहिए। व्यक्ति ही हर समाज और राष्ट्र की इकाई है। सामूहिक प्रयास बहुत हो गए। अब नये 16 | For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग से गुज़रें और हर व्यक्ति की शुद्धि और मुक्ति पर ध्यान दें।मात्र देश की आज़ादी ही काफी नहीं है जब तक जनमानस परतंत्र है। विभिन्न सम्प्रदायों ने अपने-अपने अनुयायियों को धर्म के नाम पर अलग-अलग तरह की बेड़ियाँ पहना दी हैं। हम बेड़ियों को दरकिनार करें और अपने जीवन के परम सत्य एवं लक्ष्य को खुद शोधे । हम गुणानुरागी बनें और हर धर्म की अच्छाइयों पर गौर करें। हर धर्म में अच्छे संत, विचारक और चमत्कारी लोग हैं। हम हर प्रकार के दुराग्रहों से मुक्त हों, गुणानुरागी बनें, नये सार्थक सकारात्मक नज़रिये से जीवन-जगत् को निहारें, स्वयं की मानसिकता को सुधारें। संसार के सारे धर्मों में अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है । हिंसा को धर्म की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। अहिंसा का भाई है सत्य । सत्य से बड़ा न कोई धर्म है, न ही धर्म का कोई स्वरूप। वाणी का सत्य ही सत्य नहीं है अपितु जीवन, जगत् और व्यवहार का सत्य भी सत्य है। सबसे बड़ा सत्य तो मनुष्य के अन्तरजगत् में है। अपने को भुलाकर, औरों के सत्य को जानने और जीने की कोशिश महज मूढ़ता है। __तीन चीजें हैं - गूढ़ता, मूढ़ता और रूढ़ता। बिना जाने अथवा बिना सोचे-समझे किसी चीज़ को अपनाना या उसका त्याग करना मूढ़ता है। बिना समझे-जाने किसी मान्यता पर अन्धश्रद्धा करना रूढ़ता है। गूढ़ता को तो उसकी अतल गहराइयों में जाकर ही जियापहचाना जा सकता है। धर्म हो या अध्यात्म अथवा विज्ञान, सभी गूढ़ता की महागुहा में रहते हैं। जगत् को जानने के लिए विज्ञान है और जीवन को जानने के लिए अध्यात्म है। मनुष्य भले ही खुद को, अस्तित्व की गूढ़ता को क्यों न | 17 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूला रहे, पर जब कभी वह वेदना से व्यथित होगा, अपने वालों से चोट खाएगा तो अपने आप से ही पूछेगा कि मैं कौन हूँ? दुनिया मेरे साथ ऐसी बदसलूकी क्यों करती है? मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है? मुझे क्या करना है या क्या होना है? मेरे जीने का लक्ष्य क्या है ? ये प्रश्न, ये जिज्ञासाएँ ही हमारे अन्तरहृदय में धर्म के साथ अध्यात्म को जन्म देती हैं । जिज्ञासा की लौ बुझनी नहीं चाहिए । जिज्ञासा समाधान की तरफ ले जाती है। जिज्ञासा चिन्तन और मनन के द्वार खोलती है । चिंतन से ही चिंता का विलय होता है। चिंतन से ही फिर नये-नये रहस्य पर्त-दर-पर्त खुलते रहते हैं । धर्म का अर्थ है : धारण करना । धर्म मनुष्य को धारण करता है । वह पथहारे को नई दृष्टि और नई रोशनी देता है और उसकी भग्न हुई मानसिक शान्ति को फिर से लौटा देता है । मन की शांति का मालिक बनकर ही मनुष्य देवत्व की ओर बढ़ पाता है । औसत आदमी साक्षर हो जाने के बावजूद, उसे मालूम नहीं है कि वह वास्तव में कौन है और उसकी वास्तविक शान्ति और समृद्धि क्या है? वास्तविक सुखों का उसे बोध नहीं और उन्हें प्राप्त करने का मार्ग भी मालूम नहीं है । सब सुस्त पड़े हैं। अगर दौड़ रहे हैं तो बग़ैर किसी बोध के, पागल - विक्षिप्त की तरह, सांसारिक और भौतिक सुखों के पीछे । उसे सुख का क्षणिक अहसास तो होता है, पर फिर वापस दुःखी का दुःखी । वह शरीर तक जाकर लौट आता है या वहीं रुक जाता है। चाहे स्त्री हो या पुरुष, हम केवल शरीर को न देखें। उसकी आत्मा में भी प्रवेश करें । जीवन सत्यम् शिवम् सुंदरम् का पथिक हो । सत्य ही शिव है, और शिव ही सुंदर है। आत्मा का सौन्दर्य शरीर के सौन्दर्य से ज़्यादा 18 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्यवान है। शरीर का सौन्दर्य आँखों को सुहाता है, पर आत्मा का सौन्दर्य परमात्मा को। हमारा तन, मन, जीवन, प्राण और आत्मा स्वस्थ हो, सुंदर हो, सुखकर हो, हमारा यही प्रयास हो। हमें मन की शांति को सबसे ज़्यादा मूल्य देना चाहिए। मन में अगर शांति है तो थोड़े से साधन भी सुख देंगे। मन में शांति का अभाव हो तो सोने और चाँदी के पहाड़ भी मिल जाएँ तो भी वे काटने को दौड़ेंगे। अन्तरमन में शान्ति न हो तो शेष शान्ति का मतलब क्या? आचरण का ढोंग और विचारों में अशांति दोहरापन नहीं तो और क्या है? बीमार आदमी को स्वास्थ्य चाहिए। वह लाखों के धन को क्या चाटेगा? आत्म-बोध और आत्म-निर्मलता से सच्ची सुख-शान्ति का अनुभव होता है। इसके लिए जरूरी है कि हम पहचानें कि हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, हमारी पीड़ाएँ और विकृतियाँ क्या हैं, वे हमें क्यों घेर लेती हैं? अपने आपको सुखी कैसे किया जा सकता है अथवा मुक्त कैसे हुआ जा सकता है? इन प्रश्नों पर विचार करेंगे तो हम स्वतः धर्म के सच्चे स्वरूप से जुड़ जाएँगे। हम अंधे की तरह गतानुगतिक न चलें और प्रज्ञा के नेत्रों से सत्य को समझें। सच्ची शान्ति मनुष्य को अन्तरात्मा में ही उपलब्ध हो सकती है। कषाय, विकार और जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से विलग रहकर आनंद-भाव के साथ उनका विसर्जन करने से ही अन्तरमन में सुखशान्ति निर्झरित हो सकते हैं। जिससे हमारी असत् वृत्तियाँ तथा प्रवृत्तियाँ मिटें, वही धर्म है, अध्यात्म है। हम वही क्रियाएँ आचरित करें जिनसे अन्तरमन निर्मल हो, मंगलमय हो। हमारा जन्म किसी की बनी-बनाई लीकों-लकीरों पर चलते रहने के लिए नहीं हुआ है। धर्म के नाम पर हम जो कुछ करते हैं, अगर | 19 For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे आत्म-निर्मलता, आत्म-शान्ति, आत्म-मुक्ति का प्रतिदिन रसास्वादन होता हो तो वह स्वीकार्य है। अन्तर्मन उज्ज्वल न हो, क्रोध-मान, लोभ-लालच समाप्त न हो, तो उस धर्माचरण का मतलब ही क्या है? दिनभर पूजा-पाठ करते फिरें और व्यावहारिक जीवन में राग-द्वेष के द्वन्द्व खत्म न हों तो पूजा के नाम पर यह केवल पाखण्ड ही हुआ। हम किसी की पूजा-पाठ करते रहने के लिए नहीं जन्मे। हम स्वयं पूज्य-पावन बनें, ऐसा प्रयास हो, पुरुषार्थ हो। हममें भी अमृत-पुत्र बनने की दिव्य सम्भावनाएँ हैं। आप महावीर की संतान हैं, तो महावीर बनिए। राम की संतान हैं, तो मर्यादित रहिए। कृष्ण की संतान हैं तो कर्मयोग कीजिए और नानक के शिष्य हैं तो देश के लिए मर-मिटिए। सुदूर भविष्य की चिन्ता न करें, अपने आपको स्वस्थ बनाएँ, जीवन को स्वर्ग बनाएँ, आत्मा को आनन्द का अधिष्ठाता बनाएँ। जीवन की तीर्थयात्रा तो जब पूरी होनी होगी, तब होगी। हमारा तो आज जहाँ पड़ाव है, उसको भी तीर्थ मानें और हर पड़ाव को भक्तिभावना से गुंजाएँ, सुख-शान्ति और आनन्द का अमृतपान करें। जीवन एक उत्सव है, इसके हर दिन का सार्थक आनंद उठाएँ। कैसे जिएँ धर्म को, इसके लिए हम कुछ सूत्र लें - 1. स्वभाव को सरल रखें, सोच को सकारात्मक, वाणी को मधुर रखें और व्यवहार को विनम्र। इन चार बातों में चार वेदों का सार समाहित है। 2. किसी को पीड़ा न पहुँचाएँ। किसी को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप है, वहीं दूसरों को सुख पहुँचाना सबसे बड़ा पुण्य है। 20 For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अपनी कमाई का एक हिस्सा करुणा-भाव से ज़रूरतमंदों के लिए अवश्य समर्पित करें। अर्जित धन की शुद्धि के लिए दान और परोपकार ही श्रेष्ठ उपाय हैं। 4. सत्यम् शिवम् सुन्दरम् को धर्म-मंत्र की तरह अपनाएँ। सदा सच बोलें और सच्चाई को ही पसंद करें। सत्य में स्वयं ईश्वर का निवास होता है। 5. नशा नाश की निशानी है। स्वयं को नशे से दूर रखें। अगर कोई बुरी आदत पड़ भी गई हो, तो उसे मज़बूत मन के साथ त्यागने का संकल्प लें। 6. कर्त्तव्य-पालन से विमुख न हों। माता-पिता, भाई-बंधु की सेवा करना पहला कर्त्तव्य है, इंसान होकर इंसान के काम आना दूसरा कर्तव्य है, अपनी कमजोरियों पर विजय पाना तीसरा कर्तव्य है। ___7. अपने क्रोध को अपने काबू में रखते हुए मन की शांति को सर्वाधिक मूल्य दें। ऐसी कोई टिप्पणी न करें जिससे दूसरे की शांति खंडित हो। 8. सभी धर्मों का सम्मान करें। हर धर्म में अच्छे संत, विचारक और चमत्कारी लोग हैं । हमें हर धर्म की उन अच्छी बातों को उदारता पूर्वक ग्रहण करना चाहिए, जिनसे हमारा कल्याण होता हो। 9.रात को सोने से पूर्व प्रतिदिन यह प्रार्थना करें - हे प्रभु! मेरे द्वारा दिनभर में किसी भी प्रकार का ग़लत चिंतन हुआ हो, ग़लत वचन निकला हो या ग़लत कर्म अथवा व्यवहार हुआ हो, तो उसके लिए मैं क्षमा-प्रार्थना करता हूँ। | 21 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये छोटे-छोटे सूत्र हैं, पर इनमें शान्ति, शक्ति, शुद्धि और मुक्ति की अनूठी आभा है। अपनाकर देखें, जीवन को कितना सुख - सुकून मिलता है। सच्चाई यह है कि हम ज्यों-ज्यों दिव्यता की ओर क़दम रखते हैं, पशुता और तमो गुण के प्रभाव स्वतः कम होते जाते हैं । मन पर विजय प्राप्त करना ही जीवन की वास्तविक आत्म-विजय है । 000 22 | For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग-नरक की सही समझ स्वर्ग और नरक - मानवीय जीवन के दो विपरीत ध्रुव हैं। स्वर्ग भी मनुष्य का अपना परिणाम है और नरक भी मनुष्य का अपना परिणाम है। मनुष्य का सत्य और कल्याण-पथ से गिरना ही नरक है और अमृत-पथ पर निरन्तर दृढ़ रहना ही स्वर्ग है। मानव मात्र का कल्याण चाहने वाले हर प्रबुद्ध व्यक्ति की यह प्रेरणा रहती है कि हर मनुष्य अमृत पथ का अनुयायी बने। वह अपने वर्तमान जीवन को भी स्वर्ग की तरह जीए और मरणोपरांत भी स्वर्ग-पथ का अनुगामी बने। हम में से हर कोई व्यक्ति स्वर्ग का सुख पाए, स्वर्ग के गीत गुनगुनाए, यह वांछित है। सामान्य तौर पर यह सर्वसाधारण की मान्यता है कि आकाश स्वर्ग का घर है और पाताल नरक का। आदमी का स्वार्थ, हिंसा और बुराइयों में गिरना पाताल की ओर लुढ़कना है, वहीं सेवा, शांति और सच्चाई की ओर बढ़ना आकाश की ऊँचाई को छूना है। स्वर्ग और | 23 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक दोनों ही हमारी अपनी आत्मा के उन्नत या विकृत परिणाम हैं। धरती का हर प्राणी, हर मनुष्य, हर आत्मा श्रेष्ठ और उन्नत स्वरूप को जिए, हम सब एक-दूसरे के हितैषी बनें, स्वर्ग-नरक की अवधारणा के पीछे यही पृष्ठभूमि है। ___ एक सेनापति ने संत के सामने प्रश्न रखा - स्वर्ग-नरक क्या है? संत ने कहा - तुम्हारा परिचय? सेनापति ने कहा - इस देश का सेनापति। संत हँसा। उसने कहा - सेनापति! चेहरे से तो तुम भिखारी लगते हो। यह सुनते ही सेनापति तैश में आ गया। उसने तलवार खींच निकाली। वह वार करने ही वाला था कि संत ने कहा - बुरा लग गया? मैं तो तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था। दो कड़वे शब्द सुनकर क्रोध में आना, यही है नरक। सेनापति बुद्धिमान था। बात समझ गया। ग़लती महसूस होते ही क्षमा माँगने के लिए संत के पैरों में गिर पड़ा - संत ने उसे उठाते हुए कहा – मित्र! यही है स्वर्ग। क्षमा माँगने की विनम्रता प्रस्तुत करना - इसी का नाम है स्वर्ग। क्या आप समझ गए कि स्वर्ग-नरक किसे कहते हैं ? स्वर्ग और नरक दोनों ही जीवन की परछाई की तरह हैं । सुकृत ही स्वर्ग है और दुष्कृत ही नरक। प्रेम और भाईचारा स्वर्ग हैं, क्रोध और वैर-विरोध नरक हैं । इस दृष्टि से व्यक्ति की अपनी आत्मा ही स्वर्ग है और वही नरक। धर्म की श्रद्धा का पहला केन्द्र-बिन्दु मनुष्य की अपनी आत्मा ही है। अच्छे और नेकी के रास्ते पर चलने वाली आत्मा ही व्यक्ति की मित्र है, वहीं ग़लत और बदी के रास्ते पर चलने वाली आत्मा ही व्यक्ति की शत्रु है। इस दृष्टि से व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु है। हमें अच्छाई और भलाई के रास्ते पर चलते हुए स्वयं अपना 24 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-मित्र होना चाहिए। जिसका अपने-आप पर विश्वास नहीं, उसका किसी और पर विश्वास नहीं। वह भला औरों पर क्या विश्वास करेगा जो खुद पर ही विश्वस्त नहीं है। आत्म-विश्वास के अभाव में व्यक्ति खुद भी विश्वनीय नहीं रहता। आत्म-भाव का सर्वोदय होने पर ही व्यक्ति अहंकार, मनोविकार और देह-राग के अन्ध-तमस् से बाहर निकल सकता है। अध्यात्म का एक ही लक्ष्य होता है : व्यक्ति आत्म-जागृत हो। खुद को भूल बैठना ही भटकाव की शुरुआत है। खुद को याद रखना ही अनासक्ति और मुक्ति का द्वार खोलना है। सार-सूत्र एक ही है कि हमारा 'मैं', हमारे मनोविकार और मिथ्याचार कम हों। हमारे कदम सदा उस ओर गतिशील रहें जिसे हम स्वर्ग पथ कहते हैं । आत्म-भाव और आत्मविश्वास ही हमें स्वर्ग-पथ और परमात्म-स्वरूप की ओर बढ़ा सकते हैं। जो स्वयं के जीवन को मात्र शरीर के ह्रास और विकास तक ही सीमित रखता है, उसके सुख को ही सुख मानता है, उसके खून के रिश्ते को ही रिश्ता मानता है, उसके लिए अध्यात्म के द्वार-दरवाजे बन्द रहते हैं। सबके बीच रहते हुए भी स्वयं की आत्म-स्मृति बनाए रखना मुक्ति की ओर चार कदम बढ़ाने की तरह है। उन लोगों की मानसिकता संकीर्ण है जो अपने जन्म-मृत्यु के पूर्व और बाद के अस्तित्व पर विश्वास नहीं रखते। आत्म-निश्चय हुए बगैर तो हम सर्वतोभावेन सहज और पवित्र नहीं हो सकते। हम अपने बीबी-बच्चों के छोटे से संसार में ही उलझे हुए रह जाएंगे। जो आँख पूरे आकाश को देख सकती है वही आँख केवल अंगुली को ही देखने में सिमट जाएगी। कभी आत्म-चिंतन करके देखें तो पाएँगे कि संसार में जीव अकेला आता है, अकेला जाता है। सब लोगों के बीच जीने | 25 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 For Personal & Private Use Only theder Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक भूल-भूलैया अवश्य होता है। बाकी वह रहता भी अकेला ही है। हम अपने को पहचानें । हम अमृत पुत्र हैं, अपनी अमृत-धर्मिता को याद करें। मैंने कभी अपना आत्म मूल्यांकन करते हुए गुनगुनाया है - मैं पुण्य रूप था, पाप बना मेरा जीवन है पंक सना। गढ़नी थी उज्ज्वल मूर्ति एक, पर मैं धुंधला इतिहास बना। हमारी दुर्दशा तो देखो, हम क्या से क्या हो रहे हैं? मनुष्य के बाने में भी पशुता सिर चढ़ बैठी है। इतना स्वार्थ ! झूठ-साँच! क्या यही हमारा आत्म-गौरव है? क्या यही कुल-गौरव, समाज-गौरव या धर्म-गौरव है? हमने विषधर साँप देखे हैं, पर यह न भूलें कि मनुष्य भी विषधर है। मनुष्य जनम-जनम का विषपायी है। उसके जन्म-जन्म के संस्कारों में इतना ज़हर है कि वह अमृत-घर में जाकर भी वहाँ से विषपान कर आता है। शिक्षा की कमी तो दिन-ब-दिन मिटती जा रही है, पर अन्तर-बोध न होने के कारण वह धूम्रपान को सुख मानकर अपनी धमनियों में जहर फैला रहा है। बेचैनी से बचने के लिए शराब पीकर शरीर-शक्ति को काट रहा है। पौष्टिकता के नाम पर माँसाहार करके मानो अपने-आपको ही खा रहा है। तनाव, चिंता, प्रतिहिंसा, अवसाद जैसे तत्त्व जीवन को और विषपायी बना रहे हैं। मनुष्य जो अपने आप में कल्पवृक्ष है, विषवृक्ष बन रहा है। मानवजाति ने बड़े तीखे जहर पाल रखे हैं। कभी देखा, क्रोध कितना ज़हरीला होता है? सर्प का जहर तो औरों को घात पहुँचाता है, पर क्रोध औरों को तो आग लगाता ही है, खुद को भी सुलगाता है। | 27 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा हर दस मिनट का क्रोध हमारे सौ मिनट की प्रसन्नता छीन लेता है। हमने माचिस की तीली का उपयोग किया है। तीली के सिर होता है, पर दिमाग़ नहीं। इसीलिए थोड़ी-सी रगड़ लगने मात्र से तीली सुलग उठती है। हमारे तो सिर भी है और दिमाग़ भी, फिर हम छोटीछोटी बातों में गुस्सा क्यों खा बैठते हैं? हमें एंग्री मैन बनने की बजाय हैप्पी मैन बनना चाहिए। क्रोधी चेहरा दूसरे को तो क्या, आईना देखोगे तो खुद को भी नहीं सुहाएगा। हँसता-खिलता चेहरा जो कोई देखेगा अपना दिल दे बैठेगा। अगर स्वर्ग को अपने जीवन में जीना है तो हर आदमी अपने आप को हैप्पी मैन बनाए, लाफिंग बुद्धा बनाए। क्रोध का त्याग करके हर समय प्रसन्न हृदय का मालिक होना अपने आप में सर्वश्रेष्ठ योग है। क्रोध की तरह ही काम को लें । काम शरीर की प्रकृति है, संसार का आधार है। काम की अधिकता व्यक्ति को व्यभिचारी और असंयमित बनाती है। काम इतना बदतमीज़ है कि इसने आँख, नाक, कान - सबको विकृत बना रखा है। काम माया का मालिक है । काम का मायाजाल ही कुछ ऐसा है कि जानवर हो या इंसान, सब खुद-बखुद जाकर इसमें उलझ जाते हैं। यही वह तिलिस्म है, जिससे बाहर निकलना दुरूह है। हालांकि विकृत मार्ग से गुज़रते रहने पर अन्ततः मनुष्य उकता जाता है। वह कई बार सोचता है कि वह अपने संवेगों और कमजोरियों पर आत्म-विजय करे, पर खुजली का रोगी खुजलाने के लिए मानो मज़बूर हो जाता है। आखिर यह छूटे भी तो कैसे क्योंकि जब वह व्यक्ति यह निश्चय ही न कर पाए कि वह आत्मा है, उसे मुक्त होना है, चाहे जो बाधाएँ आएँ, पर उनसे पार लगना है। अंकुश 28 For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगाने की कला आ जाए तो हाथी को भी वश में किया जा सकता है। किसी का सुधरना या सुधारना मुश्किल है, पर अगर व्यक्ति खुद ही सुधरने के लिए जागरूक हो जाए तो दुनिया में ऐसी कौन-सी अड़चन है, जिससे पार न पाया जा सकता हो। अंकुश लगाने की कला आ जाए, तो हाथी को भी वश में किया जा सकता है। दीप जलाने का ज़ज़्बा पैदा हो जाए तो उसकी रोशनी में अंधेरे को दूर किया जा सकता है। हमें अपने जीवन की मर्यादाएँ तय करनी होंगी। कुछ ऐसे संकल्प हर रोज़ सुबह और शाम दोहराने होंगे। जैसे : मैं अपने शरीर को स्वस्थ-प्रसन्न-पवित्र रलूँगा। मैं अपने विचारों को स्वस्थ-प्रसन्न-पवित्र रखूगा। मैं अपनी बुद्धि को स्वस्थ-प्रसन्न-पवित्र रखूगा। वस्तुतः शारीरिक, वैचारिक और बौद्धिक स्वस्थता-प्रसन्नता और पवित्रता ही जीवन की स्वस्थता, प्रसन्नता और पवित्रता का आधार है। सुकृत मार्ग पर बढ़ने वाले संकल्प, विचार और व्यवहार जीवन के लिए अमृत हैं। विकृत मार्ग पर चलता हुआ जीवन हमारे लिए विषपान है। मन के विकारों और संवेगों की परितृप्ति के लिए तो अब तक ढेर सारे प्रयास हो गए, किन्तु मन की शान्ति और बुद्धि की पवित्रता के लिए हमें सजग होना चाहिए। यदि मन से ऊपर उठकर अतिमनस् जगत् में जी सकें तो हम उस जगत् में जी सकते हैं जो निष्कषाय और निर्विकार है, आनन्द और अहोभाव से परिपूर्ण है। हम मन को निर्मल, निर्विकल्प करके ही भीतर की निर्मल स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। हम प्रतिदिन स्नान करें, साफ-सुथरे कपड़े पहनें। स्वास्थ्य-लाभ | 29 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पूरे इंतज़ाम होने चाहिए। हवा-पानी-भोजन की स्वच्छतासात्त्विकता बनी रहनी चाहिए। कोई भी काम करते समय इतना ज़रूर देख लें कि वह अमानवीय, तामसिक अथवा अहितकर न हो। ऐसा कोई कार्य न करें जिससे स्वयं का तो हित हो पर दूसरे का अहित हो जाए। कार्य वही श्रेष्ठ है जो स्वयं के लिए भी मंगलकारी हो और दूसरों के लिए भी। विचारों में ऊँचाई हो और जीवन में सादगी। कम बोलें, धीरे बोलें, मधुर बोलें। मन को क्रोध की बजाय मैत्री का माधुर्य दें। अहंकार की बजाय विनम्रता का पाठ पढ़ाएँ। प्रपंच की बजाय पारिवारिकता के भाव को विस्तार दें। संग्रह और लोभ के स्थान पर सेवा और दया की भावना रखें। सर्व मैत्री, प्रमोद, करुणा और अनासक्ति ही जीवन को आध्यात्मिक तरीके से जीने के श्रेष्ठ मंत्र हैं। हम अपने आत्मिक सुख और आन्तरिक पवित्रता के लिए स्वयं तो प्रयास करें ही, परम पिता परमात्मा से भी नैतिक और आत्मिक बल की प्रार्थना करें। परमात्मा सांसारिक और अपवित्र भावों से मुक्त है। वह सद्गुणों का सागर है। परमात्मा के पास देने के लिए है पवित्रता, दिव्यता, शान्ति, शक्ति और संबोधि। वह हमें ऐसी शान्ति, प्रेम और ज्ञान प्रदान करता है जिसका संबंध हमारे अस्तित्व-सुख और आध्यात्मिक विकास से है। परमात्मा के प्रेम की एक किरण, ज्ञान की एक रश्मि, करुणा की दो बूंद भी हमें नौनिहाल कर सकती हैं। हमें अपना आत्म-बोध कायम रखते हुए परम प्रभु का सदा स्मरण रखना चाहिए। परमात्मा की याद हमें गलत मार्ग पर जाने से रोकेगी और सही मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देगी। सम्यक् मार्ग पर चलने वाले लोग संसार-सागर पर तैरने वाले दीपक के समान हैं। धरती के सच्चे देवता तो वे ही हैं जो जीवन में दिव्यताओं को आत्मसात् किये रहते हैं। 30/ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवता और राक्षस - दोनों तरह की प्रवृत्ति के लोगों का धरती पर बसेरा है। हमारे बीच ही राक्षस जीते हैं और हमारे बीच ही देवता। जब कोई हर तरह की लाज़-शर्म और मर्यादा को त्यागकर हिंसा और बलात्कार पर उतर आता है, तो लोग कहते हैं - पता नहीं, यह इंसान है या जानवर ! आतंक और क्रूरता पर उतारू हुए लोगों के लिए कहा जाता है - यह शैतान है, राक्षस है। जबकि शान्त, भद्र और बेदाग जीवन देखकर ही हम किसी के प्रति कहा करते हैं - यह आदमी नहीं, देवता है। देव पूजा जाता है। उसकी संगति तो दूर, दर्शन भी सौभाग्य-वर्धक है। देव-पुरुष हमारे अन्तर्हदय में दिव्यता की एक किरण उतार जाते हैं। देवता वे हैं जिनके पास बैठने मात्र से ही मन की कलुषितता तिरोहित होती है तथा मन को शान्ति और सुकून मिलता है। मनुष्य भले ही देवता न हो, पर वह देवता हो सकता है। मनुष्य अपने में स्वर्ग को जी सकता है । वह शीलवान्, समाधिवान, प्रज्ञावान् हो सकता है। वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह हो सकता है। स्थितप्रज्ञ, अनासक्त और जीवन-मुक्त हो सकता है। प्रेम, सेवा और करुणा से ओतप्रोत हो सकता है। जातपाँत के भेदभाव से मुक्त होकर सामाजिक समता को जी सकता है। मनुष्य कुछ करना चाहे और कर न पाए, यह नामुकिन है। हम अपने जीवन को सुधारें, उसे मंगलकारी बनाएँ। धर्मध्यानपूर्वक जिएँ। सुख-शान्ति से जीने के लिए ही धर्म है। मृत्यु के बाद आसमान में बने स्वर्ग को पाने के लिए अथवा पाताल में बने नरक से बचने के लिए धर्माचरण की पहल न करें। नरक और स्वर्ग दोनों हमारे भीतर हैं । भीतर में जल रही आग नरक है, उसे बुझाना धर्म | 31 For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। भीतर में स्वर्ग के स्रोत हैं, उन्हें उपलब्ध करना धर्म है। अभी स्वर्ग, तो बाद में स्वर्ग; अभी नरक, तो बाद में भी नरक। स्वर्ग और नरक कोई भौगोलिक परिवेश नहीं हैं, ये मन की अच्छी और बुरी परिणति के नाम हैं। हर मनुष्य पतित से पावन हो सकता है, शैतान से देवता बन सकता है, नर से नारायण हो सकता है। सरलता, प्रसन्नता, आत्मीयता, प्रामाणिकता और निर्भीकता - ये पाँच गुण मनुष्य को देवत्व की ओर अग्रसर करते हैं। वस्तुतः हमारे आचार-विचार पर सात्त्विक और दैवीय गुणों का साम्राज्य होना चाहिए। हम सदा उस प्रेम से प्रेरित रहें जो आत्मा को आत्मा का सुख और साहचर्य प्रदान करें। अन्तरात्मा की दिव्यता ही मनुष्य को देवता बनाने का सहज सरल सूत्र है। कैसे जिएँ हम स्वर्ग को, कैसे बचें हम नरक से, इसके लिए लें हम सात अमृत सूत्र - __ 1. क्रोध से बचिए। स्वर्ग उनके लिए है जो अपने क्रोध को अपने वश में रखते हैं और गलती करने वालों को माफ़ कर देते हैं। ईश्वर उन्हीं से प्यार करता है जो दयालु और क्षमाशील होते हैं। 2. सबके साथ प्रेम और सम्मान से पेश आइए। आखिर हमें उसी व्यवहार का सामना करना पड़ता है, जैसे हम अपनी ओर से बीज बोते हैं। हमें औरों से उतना ही प्रेम और सम्मान मिलेगा जितना हम अपनी ओर से दूसरों को देंगे। 3. सबके साथ विनम्रता से पेश आइए। किसी मृदु और विनम्र व्यक्ति से अपनी तुलना करके देखिए, आपको पता चल जाएगा कि 32 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका घमण्ड त्यागने जैसा है। 4. किसी भी कार्य को भारभूत मत समझिये। उत्साह-भाव से किया गया कार्य ही स्वर्ग का प्रथम द्वार होता है और बेमन से किया गया कार्य ही बंधन की बेड़ी बन जाता है। 5. अपने तनाव, निराशा और चिन्ता के बोझ को उतार किये और जीवन में शान्ति, विश्वास, उत्साह और ऊर्जा का संचार कीजिए। दर्पण में आखिर वैसा ही चेहरा दिखाई देता है, जैसी हमारी मन:स्थिति होती है। 6. कर्त्तव्यों का पालन कीजिए । कार्य और कर्त्तव्य जीवन-पथ के देवदूत हैं । भौतिक सुख, जिसके पीछे हम दौड़ रहे हैं, चापलूस शत्रु हैं। स्वार्थ और भोग-विलासिता का त्याग करके इन्द्रियों की आसक्ति से ऊपर उठिये। भीतर की पशुता के क्षीण होने पर ही जीवन में दैवीय गुण प्रकट होते हैं। 7. दूसरों की हमेशा मदद कीजिए। ईश्वर हमें उतनी लाख गुना मदद करते हैं जितनी हम किसी दीन-दुःखी की मदद किया करते हैं। ये संकेत हमारे लिए स्वर्ग का रास्ता प्रशस्त करते हैं और नरक की आग में गिरने से हमें बचाते हैं। भला जब स्वर्ग आपके हाथ में आ सकता है तो हम नरक के कीचड़ में क्यों गिरें । जीवन को इस तरह जिएँ कि जब तक जिएँ तब तक स्वर्ग हमारी हथेली में हो और जब नश्वर शरीर का त्याग करें तो आत्मा में मुक्ति का महोत्सव हो। 000 | 33 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा : कहाँ है, कैसा है ? RANDOMARRIAGHORAN rasannaHADURRIANSIGHTINAMITRAMERAMANANDHeatuwariOSSIONPORNamaanadaNING arilesaneKEHRADURaepsakse 'परमात्मा' शब्द का उच्चारण करने मात्र से हृदय उल्लसित हो जाता है। मन की पाशविक वृत्तियों पर अंकुश लग जाता है। प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और आत्म-भाव उमड़ आता है। परमात्मा अस्तित्व की सर्वोपरि सत्ता है। अस्तित्व और परमात्मा के बीच एक पुलक भरा सम्बन्ध है। परमात्मा किसी दर्शन-शास्त्र की अवधारणा नहीं, वरन् उसकी आभा और उसका वीतराग रास तो चारों ओर है, सर्वत्र है। परमात्मा मेरे भीतर भी है और आपके भीतर भी। प्रेम और प्रणाम का भाव अपने प्रति भी हो और औरों के प्रति भी। औरों को प्रेम दें और अपने आपको कष्ट, यह कौन-सी भक्ति हुई? अस्तित्व में ऐसा कोई अंश नहीं है जिसमें परमात्मा की सम्भावना से इंकार किया जा सके। हम उसे केवल अपनी ही आँखों में झाँक 34/ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं, ऐसा नहीं है । यदि अन्तर- दृष्टि में उसकी रोशनी पैदा हो जाए तो हर ठौर वही झलकता हुआ नज़र आएगा। कभी प्रकृति की गोद में जाकर बैठें तो पता चले कि वह हर फूल, हर डाल पर है। झरनों से लेकर पहाड़ों तक, समुद्र से लेकर आसमान तक, फूलों से लेकर चाँद-सितारों तक वही तो विविध रंगों में मुस्कुराता है, लहराता है। जब सूरज-चाँद को देखते हैं तो लगता है प्रभु ने स्वयं ने दुनिया की रोशनी के लिए दो दीप जला रखे हैं। चिड़ियों की चहचहाट, कबूतरों की गुटर-गूं, भौंरों की गुंजन और नदियों का कलरव सुनते हैं तो लगता है जैसे प्रभु हमसे संवाद कर रहे हों, अठखेलियाँ खेल रहे हों । दृष्टि हो तो प्रभु सार्वभौम है, सब जगह है। वह तो सर्वव्यापी है। यह हमारी अल्प बुद्धि का परिणाम है कि जो सर्वव्यापक है हम उसे काबा - कर्बला, काशी- मथुरा, पालिताना - पंढरपुर में ही ढूंढते फिरते हैं । वह शब्द और नाम से ऊपर है फिर भी हम उसे प्रार्थना के सीमित शब्दों में बाँधते रहते हैं । वह सब कुछ जानता है फिर भी हम उसे अपनी इच्छाएँ और मंशाएँ बताते रहते हैं और उन्हें पूरी करने के लिए बार-बार आग्रह करते रहते हैं । या मेरी समझ से प्रभु से केवल प्रेम करें। कोई प्रार्थना है तो कहें और मुक्त हो जाएँ। रोज़-रोज़ मिन्नतें न करते रहें । वह भूल-भुलैया नहीं है। उससे तो केवल अपनी अर्जी लगाएँ और बाकी सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ दें। उसे स्थान विशेष में न ढूँढें । वह या तो सर्वत्र है, कहीं नहीं है। परमात्मा की उपस्थिति का अहसास तभी होता है, हमें अपना अहसास हो । जैसे ही हमें अपना अहसास होता है, उसे अपनी बाँहों में मौजूद पाते हैं। मैंने उसकी कोई प्रतिमा नहीं बनायी, पर जो भी प्रतिमाएँ हैं, उन सबमें उसको देख रहा हूँ। फूलों से जब हम 35 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौरभ आती है और प्रभात के पुष्प परमात्मा को समर्पित कर दिये जाते हैं। किससे बचूँ, किससे लगूँ- यह सोच ही कहाँ ! जब पूरे अस्तित्व में उस परम-आत्मा, परमात्मा, परमेश्वर की मौजूदगी महसूस होती हो । सम्भव है, बहुत सारे लोग दुनियादारी के भुलावे में परमात्मा को भूल जाएँ अथवा न भी मानें, पर व्यक्ति जब कभी भी स्वयं को व्यथित और असहाय पाता है, कम-से-कम उस समय तो अवश्य ही उसका अन्तरहृदय स्वतः परमात्मा को पुकार उठता है । हालांकि यह सच है कि परमात्मा किसी का भला-बुरा नहीं करता, कर्तृत्व-भाव से मुक्त होने के कारण ही वह सत्ता परमात्मा कहलाती है । पीड़ा और संघर्ष की वेला में हम परमात्मा को इसलिए याद करते हैं ताकि हमारा मनोबल बना रहे, परमात्मा की शक्ति हमें नैतिक बल प्रदान करती रहे । परमात्मा के ज्योति-प्रदेश सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हैं । जो भी आत्माएँ जन्म-मरण की संस्कार - धारा से मुक्त हो जाती हैं, उनके निर्मल आत्म- प्रदेश सकल ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर अपनी विराटता को उपलब्ध कर लेते हैं, बूँद महासागर हो जाती है। मुक्त आत्माएँ परमात्म-स्वरूप होती हैं । परमात्मा कोई व्यक्तिवाचक नहीं है । आत्मा के अस्तित्व की परम अवस्था को उपलब्ध कर लेने का नाम ही परमात्मा है । मनुष्य की मुक्ति हो जाने के बाद मुक्त आत्माओं में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रहता । सब समान हो जाते हैं । हर भाव से मुक्त हो जाते हैं । परमात्मा वास्तव में मुक्त आत्माओं को दिया जाने वाला एक पवित्र सम्बोधन है । परमात्म-सत्ता में कहीं कोई भेद नहीं होता । भेदों का निर्माण तो For Personal & Private Use Only 37 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-मन करता है। परमात्मा अमन है, मन की अनर्गलता से मुक्त है । जो भेद नज़र आते हैं, वे जन्म, जाति, रंग, धन, वैभव, पदप्रतिष्ठा से उठापटक के चलते नज़र मुहैया होते हैं । जीवन - मुक्ति और देह-मुक्ति के बाद तो सारे भेद मिट जाते हैं, परम अभेद दशा उपलब्ध हो जाती है, परम आत्मा - स्वतंत्रता का संगान होता है । उस भागवत् दशा में होती है - परम शान्ति, परम ज्ञान, परम आनन्द, सच्चिदानंदमयी दशा । I परमात्मा का स्मरण हम इसलिए करते हैं ताकि उसकी शान्ति, ज्ञान और आनन्द की उर्मियाँ हमें भी मिल सकें । निश्चय ही परमात्मा सर्वत्र है । विदेह होने के कारण परमात्मा के कान नहीं हैं, लेकिन वह फिर भी सुनता है । आँखें नहीं हैं, फिर भी देखता है । पाँव नहीं हैं, फिर भी चलता है । अपनी अंतर ज्योति की बदौलत सारी सृष्टि परमात्मा में प्रतिबिम्बित हो जाती है। प्रभु तो सदा ध्यानस्थ है, ज्योति स्वरूप है, परम चैतन्य - स्वरूप है, आनन्द का सागर है । वह ऐसा प्रकाश है जो जन्म की त्रासदी और मृत्यु के अन्धकार से मुक्त है । यदि दिव्यता की प्यास हो तो परमात्मा से हमें सब कुछ मिल सकता है । वह हमारा तीसरा नेत्र बन सकता है । हमारे अन्तरहृदय के मानसरोवर में वह राजहंस की भाँति उन्मुक्त विहार कर सकता है। अज्ञान और दलदल से घिरी प्राणीजाति के लिए परमात्मा एक हरीभरी मुस्कान है। यह मानना हमारी निरभिमानता और सौहार्दता है कि धरती पर जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा का आविष्कार है । वस्तुतः जो कुछ भी परिवर्तन अथवा संचलन दिखाई देता है, वह सब प्राकृतिक है, नैसर्गिक है। प्रकृति की अपनी व्यवस्थाएँ हैं। सन्तुलन बनाए रखने के 38 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए उसके अपने मापदण्ड हैं। परमात्मा तो प्रकृति पर भी सदा कृपापूर्ण ही रहता है। प्रकृति के हर अंश में परमात्मा का नूर है। ज़रा, मुस्कुराकर नज़र उठाएँ, डाल-डाल, पात-पात उसी की आभा झलकती दिखाई देगी। ___ यह गौरतलब है कि परमात्मा की दिव्य सत्ता के अंश हम सब में हैं,सारे अस्तित्व में हैं, पर हम परमात्म-रूप नहीं हैं । हाँ, हम वैसा हो सकते हैं। अमन की दिशा उपलब्ध हो जाए, मन के विकारों और उद्वेगों से मुक्त हो जाएँ, प्राणों में समाये अन्तस्-आकाश को खोज लिया जाए तो भीतर भी और बाहर भी, दोनों तरफ परमात्मा की खिलावट हमें प्रमुदित करेगी। चूँकि परमात्मा की सत्ता का आभामण्डल सारे अस्तित्व में, दिग्दिगन्त में व्याप्त है, इसलिए हम उसकी आभा से अछूते नहीं हैं, परन्तु हमारे द्वारा भले-बुरे काम करवाने का दोष हम परमात्मा के मत्थे नहीं मढ़ सकते। करने वाला परमात्मा नहीं वरन् आत्मा है, हम स्वयं हैं, हमारा अहंकार है, हमारा कर्ताभाव है। वास्तव में आत्मा की कर्तृत्वभाव से मुक्ति ही जीवन में परमात्म-स्वरूप की पहल है। भला-बुरा जो कुछ भी होता है, वह आत्मा के सहचर के रूप में रहने वाले कर्मों के कारण है, आत्म-अहंकार के कारण है, मन के आदेशानुसार गलत-सलत करते रहने की वजह से है। हर जीव की अपनी कर्म-नियति और प्रकृति होती है। मनुष्य एक के बाद एक कर्म करता चला जाता है। पूर्वकृत कर्मों पर नये कर्मों की परतें चढ़ती चली जाती हैं। जब वे कर्म उदय में आते हैं तो मनुष्य के सम्पूर्ण अस्तित्व को अपने चक्रव्यूह में घेर लेते हैं। वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। सच में तो हमें अपने मानसिक, | 39 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों पर निरन्तर ध्यान देना चाहिए ताकि नये कर्मों की पथरीली परतें निर्मित न हों और पूर्वकृत कर्मों को हम भीतर के शिखर पर बैठकर ध्यानपूर्वक देखें, समझें, बोधपूर्वक भोगें, क्षय करें । मनुष्य एक मन्दिर है और जीवन एक तीर्थयात्रा, आत्मा इस मंदिर की जीवंत मूर्ति है, पर स्वयं को मन का गतानुगतिक और आपूर्ति का पर्याय बना लिये जाने के कारण ही जीवन का सत्य हर मूल्य से नीचे गिर गया है । मनुष्य चाहे कितना भी गलत से गलत काम क्यों न करे, पर एक बार तो उसकी अन्तरात्मा उसे ग़लत राह पर चलने से अवश्य टोकेगी । इसीलिए कहा जाता है कि तुम अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनो। क्योंकि अंतरात्मा की आवाज़ में परमात्मा की आवाज़ छिपी है। मनुष्य अपने मन के प्रभाव में अंतरात्मा की आवाज़ पर गौर नहीं करता। देह-भाव और परिस्थितियों से मज़बूर होकर वह अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ को ठुकरा देता है। वह उस पर ध्यान नहीं देता और ग़लतियों पर ग़लतियाँ दोहराता रहता है, ठोकर पर ठोकर खाता रहता है । यही मनुष्य का अज्ञान है और शायद यही उसकी कर्मनियति । काम चाहे ग़लत हो या सही, उसे करने वाला मनुष्य स्वयं है, न कि कोई और सत्ता । जब हम अपने किसी श्रेय को परमात्मा पर डालते हैं, तो उसका कारण यह नहीं है कि वह काम परमात्मा ने करवाया वरन् इसलिए कि उस सफलता के कारण हममें अहं - भाव न आ जाए कि यह काम मेरे कारण हुआ । मैं ही था जो सफल हो गया। आत्मअहंकार से बचने के लिए ही परमात्म-कर्तृत्व को स्वीकार किया 40 | For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। भला कोई आदमी चोरी करे, और वह यह तर्क दे कि सब प्रभु ही करवा रहा है तो यह अपने पाप से भागने का तरीका हुआ। यदि चोरी और व्यभिचारी का कर्त्ताभाव हम परमात्मा से जोड़ते हैं तो न्यायाधीश द्वारा दंडित किये जाने पर यह क्यों कहते हैं कि न्यायाधीश ने मेरे साथ अन्याय किया है। एक व्यक्ति चोरी के अपराध में न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित किया गया। न्यायाधीश के मस्तक पर चंदन का तिलक लगा हुआ था। चोर ने मौके का लाभ उठाते हुए कहा - चोरी मैंने नहीं की। सब प्रभु ही करवा रहा है। न्यायाधीश ने एक साल तक कठोर कारावास की सजा सुनाते हुए कहा – यह दंड मैं नहीं दे रहा हूँ, ईश्वर ही दिलवा रहा है। हम अपने कृत-कारित-अनुमोदित पाप कार्य का फल भुगतने से इस तरह बच नहीं सकते। हमें परमात्मा के साथ अच्छाइयों का कर्त्ताभाव जोड़ना चाहिए, बुराइयों का कर्त्ताभाव नहीं। रत्नाकर द्वारा यह पूछे जाने पर कि मेरे द्वारा किये जाने वाले डाकागिरी के अपराध में यदि मैं पकड़ा जाऊँ तो मेरे साथ जेल में सजा भुगतने को कौनकौन तैयार हैं, सभी घर वालों के द्वारा मुकर जाने पर रत्नाकर को जीवन का सच्चा आत्म-ज्ञान हो गया और वह रत्नाकर से वाल्मीकि बन गया। एक आदर्श ब्रह्मवेत्ता, एक आदर्श महर्षि । हम या तो अपनी अच्छाई और बुराई का कर्त्ता स्वयं को माने या फिर अकर्ता-भाव में स्वयं को संयोजित करते हुए परमात्मभाव को प्राथमिकता दें। अपनी सफलता को परमात्मा की कृपा मान लिया जाए तो हमारी यह सफलता, हमारी ओर से परमात्मा को भावभरा अर्घ्य चढ़ाने के समान है। कर्ता-भाव से छुटकारा ही जीवन में | 41 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति-भाव को जीना है । जिसे प्रभु जीवित रखना चाहते हैं भला उसे कौन मार सकता है। यों तो मरने वाला भी व्यक्ति है और बचने वाला भी । अगर उसकी अपनी नसीब है तो किसी की लाख कोशिश के बावजूद भी वह बच जाएगा। परमात्मा संहारक या मारनेवाला नहीं हो सकता । वह तो दयालु और कृपालु है । वह किसी को क्यों मारेगा? वह तो अस्तित्व की पुलक है, फूलों की लाली है, झरनों का कलरव और परिन्दों का संगीत है । परमात्मा अस्तित्व का हृदय है । वह मारता नहीं, तारता है । कर्मों की रेखा चुक जाने पर ही मनुष्य का संहार होता है । भगवान् भी मनुष्य की कर्म-नियति को मिटा नहीं सकते। राम के वनवास या सीता के वनवास को स्वयं राम या सीता भी न टाल पाए। होनी बड़ी प्रबल है। इसीलिए कहता हूँ कि हमें अपने आप पर ध्यान देना चाहिए। अपनी आवाज़ को सुनना चाहिए। स्वयं में प्रतिध्वनित हो रही हर अनुगूंज पर कान देने चाहिये। अपने हर कर्म के प्रति सचेतसावधान रहना चाहिए । आदमी की नियति अथवा प्रकृति कितनी भी बुरी क्यों न हो, अगर हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ को नज़र - अन्दाज न करें, उस पर अमल करें, तो यह काफी कुछ सम्भावना है कि हम बदी की राह पर चलने से अपने आपको बचा लेंगे । अन्तरात्मा की आवाज़ वास्तव में परमात्मा की ओर से ही मिलने वाले संकेत हैं । अन्तरात्मा की आवाज़ को सुनना और जीना ही धर्म का आचरण है । धरती पर रंग, रूप, शक्ति अथवा वैभव को लेकर ढेर सारे भेदभटकाव हैं, पर यह भेद-भटकाव कराने वाला परमात्मा नहीं है, वरन् हर मनुष्य की अपनी कर्म - दशा है। चूँकि हमारे कर्मों में समानता नहीं 42 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, इसीलिए धरती पर भी असमानता है। जैसे जिसके कर्म अथवा जैसी जिसकी किस्मत, उसके लिए वैसा ही उसका प्रतिफल! अगर हम अपने जीवन को परम-सुखी और परम-स्वतंत्र बनाना चाहते हैं तो या तो बहते हुए तिनके की भाँति हो जाएँ या फिर अपनी कर्मनियति बदल डालें। अपने सोचने और जीने की शैली को रूपान्तरित कर लें। नई अन्तर-दृष्टि से हर चीज़ को देखने का प्रयास करें। जो लोग धर्माचरण तो करते हैं पर अपनी कलुषित अन्तर-वृत्तियों को नहीं बदलते, उनका धर्माचरण उनके लिए आत्म-रूपान्तरण का कारण नहीं बनता। उससे तो मात्र धर्म का कथित व्यवहार निभ जाता है। व्रत-उपवास के नाम पर आदमी अमुक समय तक भूखा रह लेता है, पर अगर वह अपना काम-क्रोध नहीं घटा पाता तो उसकी तपस्या और आराधना सार्थक कहाँ हो पायी? मन्दिर में भगवान् की पूजा करें अथवा मस्जिद में ख़ुदा की इबादत, यदि व्यवहार में गाली-गलौच, छल-प्रपंच, मेल-मिलावट जारी रहता है तो यह वास्तव में अपने आप के साथ ही छलावा है, अच्छे बाने में कोढ़ का पलना है। परम त्याग का पथ तो मनुष्य के भीतर है। मनोविकारों का त्याग ही सच्चा त्याग है। लोग देश के लिए जीवन को कुर्बान कर देते हैं, हम अपने लिए मनोविकारों और दोषों का त्याग करें। स्वार्थ का त्याग परमार्थ को साधने का पहला मंत्र है। परमात्मा/परमेश्वर को अन्तर्मन में आत्मसात् कर हम भीतर के तमस् को दूर कर सकते हैं। उससे लगने वाली लौ हमें प्रकाश-पथ का अनुयायी बना देती है। हम अपनी मानसिक तामसिकता से मुक्त होने के लिए परमात्मा के दिव्य प्रकाश का ध्यान धरें। परमात्मा का स्थूल रूप न होने से वह भले ही किसी को दिखाई 143 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं देता, लेकिन आत्मिक पवित्रता और आध्यात्मिक विकास के लिए हमें परमात्मा से बेहिसाब मदद मिल सकती है। हवा का रूप दिखाई न देने का मतलब यह नहीं कि हवा नहीं है। इन पेड़ों से निकलती प्राण-वायु (ऑक्सीजन) दिखाई नहीं देती है, पर उसका अस्तित्व तो है ही । दिखाई देने से ही किसी तत्त्व की सिद्धि नहीं होती। - परमात्मा अनुभव - दशा है, अन्तरदशा है, पुलक दशा है। वह आँखों के भीतर-की- आँखों से ही अनुभूत और उपलब्ध किया जाता है। परमात्मा मनुष्यात्मा की परम पवित्र और सम्पूर्ण मुक्त दशा का पर्याय है । उसका निवास हमारे हृदय की श्रद्धा में है । हम अपनी आत्मा से परमात्मा की दिव्यता का आह्वान करें। हम अपने मन को मारे नहीं, बल्कि पवित्र प्रेम और भक्ति से श्रृंगारित करें । अपने सोच-विचार - बरताव में सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के मूल्यों को साकार करें । आत्मा की धन्यता ही व्यक्ति को धन्य बनाएगी। वही परमात्म-स्वरूप का सान्निध्य प्रदान करेगी। यही सूत्र काफी है - अस्तित्व के साथ जीने के लिए, परमात्मा के साथ पुलकने के लिए। आइये, हम इस भाव - दशा के साथ परम सत्ता की ओर उन्मुख और गतिशील हों - 44 | सबसे प्रेम करो, सबकी सेवा करो, सबसे मिलो - जुलो, सबमें प्रभु के दर्शन करो। । सभी ठौर प्रभु का मंदिर है, और घड़ी सब पूजा की है ॥ For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो फिर प्रतिदिन प्रतिछिन मेरे, नवोत्सर्ग का एक पर्व हो। मेरे उठे हुए चरणों में, नव आशा हो, दिव्य गर्व हो। एक-एक कामना अर्घ्य हो, कर्म-कर्म मेरा तर्पण हो। अधिक पूर्णतर औ, विशालतर, दिन-प्रतिदिन मेरा अर्पण हो॥ जो सागर-सा शान्त, गगन-सा, नीरव औ, निःशब्द गभिर हो। जो भीतर से अति सक्रिय हो, और बाहर से मूक बधिर हो॥ जिसके पग की चाप-चाप पर, और किसी का सुनियंत्रण हो। और कर्म की श्वास-श्वास पर, रूपांतर की लगी मुहर हो॥ डूब गया है मेरा सब कुछ, अविचल एक शांति-सागर में। देख रही है आँखें तुमको, ही तुमको, चर और अचर में॥ जान गया हूँ मैं इस जग में, इक तुम ही तुम तो जीते हो। इन सब रूपों-आकारों के, पीछे तुम-ही-तुम बसते हो॥ 45 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिवर्तनीय उपस्थिति में, ही अपनी तुम बैठे-बैठे। अजस्र गति संचार किया करते हो, अगिन रूप निर्माण किया करते हो। तुमसे ही तो है सब श्वास चल रहे, शांति, शांति, वह शांति धरा पर उतरे ॥ हे प्रभु! तुम्हारी कृपा से सर्वत्र शांति और आनन्द हो। हमारा हृदय प्रेम में बना रहे, हमारे हाथ परोपकार में रहें, हमारी दृष्टि सदा सकारात्मक हो, इन तीन चीज़ों की सौगात हमें अवश्य देना। हमसे सदा वही कर्म हों जो कर्म तुम हमसे करवाना चाहते हो। 000 46 For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वजन्म : पुनर्जन्म पूर्णजन्म हम अपनी जन्म-जन्मान्तर की कहानी के फिर से प्रकाशित हुए नये संस्करण हैं । कई बार हमारे लघु संस्करण सामने आए हैं, तो कई बार ज़रूरत से ज़्यादा विस्तृत। जोड़-तोड़, सार-विस्तार सदा जारी रहा है। हर जन्म हमारे लिए पुरस्कार-स्वरूप होता है। हम जीवन और जगत के रास्तों से गुजरते हैं। सही ढंग से न गुजर पाने के कारण अबोध-दशा में ही मर जाते हैं। जो संसार की पाठशाला में आकर यहाँ के पाठों को ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाते, मृत्यु उनकी परीक्षा लेती है, अनुत्तीर्ण हो जाने पर वापस उसी पाठशाला में भेज दिया जाता है। पुनर्जन्म के पीछे यही कहानी है। ___ जीवन तो एक लम्बी श्रृंखला है। हर जन्म एक नई कड़ी बनता है और इस तरह जन्म-जन्मान्तर की यह जंजीर लम्बी होती जाती है। मुक्ति हर बार बाधित हो जाती है। हम जीवन में ऐसे संकल्प, संस्कार और इच्छाएँ निर्मित कर लेते हैं कि हमें उनकी आपूर्ति के लिए फिर 47 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म लेना पड़ता है। हर बार नये कर्म बँध जाते हैं। मनुष्य अपने एक जन्म में इतने संकल्प-विकल्प कर लेता है कि उनकी आपूर्ति के लिए पूरे सौ जन्म तक लेने पड़ जाते हैं। जब एक जन्म में नये सौ जन्मों की हैसियत है तो सौ जन्मों में भी वैसे ही वैर - विरोध, राग-विकार होते रहे तो न जाने कितने नये जन्मों की संरचना होगी ? मनुष्य-जीवन का फूल सौभाग्य से ही खिलता है । धरती पर इतनी प्राणी - जातियाँ हैं, पर मनुष्य अपने स्वभाव से बढ़कर भी अपने में सम्भावनाओं को लिये रहता है । यों यहाँ मानवीय अथवा प्राणीमूलक जितने भी भेद-उपभेद दिखाई देते हैं, वे सब अपने ही अनर्गल संस्कारों के साकार रूप हैं, अपने ही किये-कराये कर्मों के परिणाम हैं। भले ही कोई किसी जाति विशेष से नफ़रत करे, पर यह बहुत कुछ सम्भव है कि हम भी कभी उस जाति में जन्मे, जिये हों। हर जाति कर्म की जाति है, हर योनि कर्म की योनि है। बीज निमित्त बनता है, योनि जन्म देती है । जाति अपने संस्कारों को उसमें स्थापित करती है । अच्छी संभावनाएँ हर जाति, हर योनि में हैं । पशु-योनि ग़लत कर्मों का परिणाम होने के बावजूद पशुओं में भी कुछ ऐसी सौभाग्यशाली संभावनाएँ होती हैं कि वे भी मानवजाति के द्वारा इज़्ज़त और मोहब्बत पा लेते हैं। ग़लत संभावनाएँ मनुष्य - योनि में भी हैं। हमारी आन्तरिक स्थिति तो देखो, हम मनुष्य - जन्म पाकर भी पशुता का आचरण कर जाते हैं, शायद किसी दृष्टि से तो पशु से भी बदतर हो जाते हैं । हम पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं, हमें यह बोध निरन्तर रखना चाहिए। पशु का काम सींग मारना है, मनुष्य का धर्म मारने की भावना से ऊपर उठना है। हम किसी बगुले को तीर का निशाना बनाने की बजाय उसे 48 | For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड़ते हुए देखने का आनन्द उठाएँ और किसी बुलबुल को खा जाने की बजाय उसके गीत सुनने का लुत्फ उठाएँ । भला, जब हम अपने को मरवाना नहीं चाहते तो औरों को मारना क्यों चाहते हैं ? अन्तत: जीवों का वध अपना ही वध है । जीवों पर की जाने वाली दया अपने आप पर ही दया करना है । सत्ता की दृष्टि से सब एक हैं, सबका अन्तर-संबंध है । हमें भी किसी भी द्वार से गुजरना पड़ सकता है । 1 आज यदि कोई पंगु है, तो वह किसी तरह का वंशानुगत परिणाम नहीं है। यह कर्म का परिणाम है। अवश्य हमने अपने पूर्वजन्म में किसी का पाँव तोड़ा होगा तो आज हमें पाँव से वंचित होना पड़ा है। कोई भी व्यक्ति नेत्रहीन तभी पैदा होता है जब उसने पूर्वजन्म में किसी के नेत्र छीने होंगे। आज व्यक्ति जो कुछ है वह अपने पूर्वजन्म का परिणाम है। आने वाले जन्म में व्यक्ति क्या होगा उसे सुख-दुःख के किन गलियारों से गुज़रना होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस जन्म में हमने भाव, विचार, क्रिया या व्यवहार के द्वारा किस तरह के बीज बोए हैं। हमारे लिए वांछित यही है कि हम ऐसे बीज बोएँ जिनकी फसलों को काटते वक्त हमें खेद या ग्लानि न हो। आत्मदृष्टि से हमें सबके प्रति प्रेम और आत्मीयता रखनी चाहिए। मनुष्य ही क्यों, पशुओं और पंछी - पखेरू के प्रति भी स्वस्थ दृष्टिकोण इज़हार करना चाहिए। फल-फूल, पत्ती-प्रकृति के हर अंश में प्रभु के दर्शन करने चाहिए। किसी को ओछा या नीच मानकर उसे छूने और बतियाने से परहेज़ रखना, न केवल अमानवीय है, वरन अपने ही साथ किया जाने वाला सौतेला व्यवहार है। | जीवन तो जन्म-जन्मान्तर से चल रहा प्रवाह है । किसी के प्रति ओछापन बरत कर हम अपने आपको ओछा न बनाएँ । हम अपने For Personal & Private Use Only 49 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-बंधन के प्रति सजग हों। कर्म वास्तव में हम पर ही लौटकर आने वाली हमारी ही प्रतिध्वनि है। यह हमारे ही अस्तित्व की प्रतिच्छाया है। कर्म मनुष्य का कारनामा है। कर्म सुशील हों, यह आवश्यक है। आत्म-शुद्धि और आत्ममुक्ति के लिए तो हर तरह के कर्म-बन्धन से छुटकारा हो जाना चाहिए। किसी का सभ्य संस्कारित घर में जन्म लेना और किसी का ग़रीब घर में पैदा होना कर्म-परिणामों की ही विविधता है। कोई स्त्री के रूप में जन्म ले रहा है जो कोई पुरुष के रूप में, कोई रोगी कोई निरोगी, कोई प्रतिभावान अथवा जड़बुद्धि, आखिर इन सबके पीछे हमारे द्वारा अतीत में बटोरे गए कर्मों की ही भूमिका है। कर्म कोई एक जन्म की कहानी नहीं है। वह जन्म-जन्म की कहानी है। किसी की आँख में यह मुस्कान है तो किसी की आँख में पानी। पूर्वजन्म के कर्म जीव के पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। शुभ कर्मों का फल शुभ होता है और अशुभ कर्मों का फल अशुभ।कर्म की सजा से बचा नहीं जा सकता। हर मनुष्य को तक़दीर की मार झेलनी ही पड़ती है। बेहोश सम्मूर्छित दशा में कर्म की नियति से गुज़रे तो कर्मों का कभी निरोध नहीं होने वाला। यह दलदल और फैलता चला जाएगा। पुराने कर्म अपनी भोग्य-दशा में और नये कर्मों का सृजन करवा लेंगे। जो बोध एवं जागरूकता के साथ अपनी कर्मवृत्तियों का साक्षी है, उसे कर्मों की चिनगारियाँ जला नहीं सकतीं। प्रगाढ़ कर्मों को जीये या काटे बगैर मिटाया नहीं जा सकता, पर उनके प्रति तटस्थ तो रहा ही जा सकता है। तटस्थता, साक्षीभाव, द्रष्टाभाव ही मनुष्य को अपनी | 51 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-नियति से मुक्त करने में सबसे बड़ा मददगार होता है। भीतर के शिखर पर बैठा साक्षी निष्कर्म है, निस्तरंग है, शान्त, परितृप्त और मौन है। यह हमारा सुखद सौभाग्य है कि हमें अपने पूर्व जन्म की स्मृति नहीं है । जब इस एक जन्म की पूरी स्मृति रखनी कठिन हो रही है और जो है, वह भी इतनी चिंता और घुटन दे रही है तो ज़रा सोचें कि अगर हमें पूर्व-जन्मों की भी स्मृति रहती तो हमारा जीना कितना दूभर हो जाता। पूर्व जन्म की माँ इस जन्म की पत्नी हो सकती है। पूर्व जन्म का पिता इस जन्म का पुत्र हो सकता है। घर में बँधा पालतू जानवर किसी जन्म का हमारा अपना ही सगा-संबंधी रहा हो तो ज़रा सोचो, हमें कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़े। हम या तो मानसिक रूप से अशान्त-विक्षिप्त हो जाएँ या फिर हँसते-हँसते खस्ताहाल। यह तो परमात्मा की कृपा समझो कि मृत्यु के साथ ही पूर्व स्मृतियाँ भी अस्तित्व की गहराई में विलीन हो जाती हैं। कुछ लोग ऐसे देखने में आते हैं जिन्हें अपने पूर्वजन्म के प्रसंगों का स्मरण हो आता है। कई बार तो वे प्रसंग खोजबीज करने के बाद प्रमाणित भी हो जाते हैं, पर ज़रूरी नहीं कि ऐसा ही हो । हमें पूर्व जन्म का जो बोध होता है अब यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूर्वजन्म कौन-सा रहा है। बिल्कुल पिछला ही अथवा उससे भी और पहले का। यदि स्वतः जन्मजात पूर्व स्मरण हो तब तो बात अलग है। सातत्य-बोध के कारण ऐसा हो सकता है। पर जहाँ किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान को देखकर किसी तरह का पूर्वबोध हो तो उसकी प्रामाणिकता तो वह बोध स्वयं ही है। हम इस सिलसिले में पूर्वजन्म, पुनर्जन्म और पूर्णजन्म को समझें। 52 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पूर्णजन्म' से अभिप्राय आत्मा की कर्म-बंधन से, जन्म-मृत्यु से मुक्ति है। पूर्वजन्म की स्मृति हमारे अवचेतन अथवा गूढ मन की परतों के उघड़ने से होती है। जिसकी चेतना मन के पार पहुँच जाती है उसे कभी भी किसी भी क्षण अपने अन्तरध्यान में पूर्वजीवन की झलकियाँ नज़र आ सकती हैं । सीधे बीते जन्म का भी बोध हो सकता है और पूर्वजन्मों में से किसी भी जन्म की झलक मिल सकती है। ध्यानयोग की गहराई में पूर्व जीवन के दृश्य दिखाई देने सम्भावित हैं। ध्यान-साधना के अतिरिक्त इसमें निमित्त भी प्रभावी हो सकता है। किसी व्यक्ति या स्थान को देखकर हम क्षण भर में आकर्षित हो जाते हैं। उसे देखने से, उससे मिलने से हमें अपने अन्तर-हृदय में मानो एक सुकून मिलता है। एक अजीब-सी परितृप्ति अथवा बेचैनी महसूस होती है। आखिर इसका राज़ क्या है? ज़रूर कोई पूर्व संबंध है, योगानुयोग है। किसी का एक नज़र में ही दिल में बस जाना, वहीं किसी का फूटी आँख न सुहाना - ये सब केवल आज के ही संयोग नहीं हैं। इनके पीछे कोई और बैठा है। जन्म-जन्मान्तर की नियति काम करती है। हमें जिन पूर्व घटनाओं का स्मरण होता है उनमें कुछ तो ऐसी होती हैं जिन्हें देखने-जानने के बावजूद हम सामान्य बने रहते हैं। जैसे थे वैसे ही। लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी भी दिखाई दे सकती हैं जो हमारे जीवन को ही प्रभावित कर डालती हैं। कभी-कभी तो यह गले की फाँस ही बन जाती है। वह हमारी सोच और साधना की धारा ही बदल डालती है। पूर्व स्मृत प्रसंग कृतकृत्य भी हो सकते हैं । वे संयोगाधीन भी हो सकते हैं और विकृत भी। पूर्व स्मृति चाहे जैसी हो, वह व्यक्ति के 153 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान जीवन को गिरा भी सकती है और नैतिक तथा आध्यात्मिक भी बना सकती है। वह किसी चक्रवात के घेरे में भी घिरा सकती है और हर घेरे से बाहर भी ला सकती है। __ हम जो भला-बुरा कर्म करते हैं उनमें से कुछ का परिणाम तात्कालिक होता है तो कुछ का दूरगामी। हम जो आज भलाई अथवा बुराई करते हैं, उसका फल भी हमें हाथोहाथ मिले, यह जरूरी नहीं है। वह ठहर कर भी मिल सकता है। यह भी सम्भव है कि उस कर्म का हिसाब-किताब करने के लिए हमें फिर से नया जन्म लेना पड़े। हम आज जो कुछ कर रहे हैं, जो फल मिल रहा है, वह आज के अथवा पूर्वजन्म में से किसी भी जन्म के कर्मों का प्रतिफल हो सकता है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि हमारे बहुत सारे कर्मों का हिसाब इसी जन्म में चुकता हो जाता है, पर जो कर्म अपनी प्रगाढ़ता बना चुके हैं वे हमारे भावी जन्मों में से किसी भी जन्म में उदय हो सकते हैं। कर्म, कर्म-वृत्ति अथवा कर्म-नियति कमज़ोर भी हो सकती है और सुदृढ़ संकल्पबद्ध भी। सामान्य वृत्तियाँ दमन, शमन और रेचन की प्रक्रिया से क्षीण हो सकती हैं, परन्तु जो कर्म हमारी चदरिया पर तेल के छींटे की तरह जम चुके हैं, उनका तो हमें भुगतान करना ही पड़ता है। बचने का पुरुषार्थ करने के बावजूद बचना कठिन लगता है। जितना गहरा बंधन हुआ है उतनी ही गहराई से संकल्पबद्ध होकर कर्मों से मुक्ति का प्रयास हो तो कर्मों के बोझ से निर्भार होने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। कर्मों का कैसा भी परिणाम क्यों न हो, हम पाप की उपेक्षा करें, 54 | For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापी की नहीं। अपने भल-बुरे कर्मों के कारण ही व्यक्ति भला-बुरा कहलाता है। हम अपने कर्मों के प्रति सावधान हों, यह ज़रूरी है । यदि कोई ग़लत राह पर चलने का प्रयास करे तो यथासम्भव हम उसे सुधरने की प्रेरणा दें। उसका भव सुधारें, उसके भाव सुधारें, उसकी राह सुधारें । संसार-चक्र में धर्म-चक्र का प्रवर्तन करें । 'पूर्णजन्म' के लिए पूर्ण पवित्रता चाहिए। चाहे कोई कितना भी क्यों न गिरा हो, वह जब भी अपने-आपको सुधारना और सम्हालना चाहे, घुप्प अंधकार के बावजूद रोशनी की पहल कर सकते हैं, भीतर के देवता को दीपदान कर सकता है, अर्घ्य चढ़ा सकता है | चेतना के शिखर पर साक्षी की बैठक ही जन्म-जन्मान्तर से मुक्त होने की विधि है, एक स्वच्छ-सम्यक् अभियान है । हमने बंधना चाहा तो आज हम बँधे हुए हैं। हम अगर मुक्त होना चाहें तो मुक्त हो सकते हैं । हमारे बंधन और मुक्ति के हम स्वयं ही कारण हैं। संसार में यों तो लगता है कि स्त्री, संतान अथवा संपत्ति बंधन के कारण हैं। हो सकता है ये बंधन के कारण हों। पर वास्तव में बंधन के कारण तभी हैं जब हम इनसे बँधना चाहें । क्रोध करने के कारण ही कोई व्यक्ति दुर्वासा बनता है। मन में दुर्वासना के बीज होने के कारण ही कोई वाल्मीकि किसी मेनका से स्खलित होता है । कमज़ोरियाँ कितनी भी क्यों न हों हम जिस दिन मुक्त होना चाहेंगे मुक्ति के लिए हमारे क़दम बढ़ जायेंगे। हम महावीर और बुद्ध से प्रेरणा लें, धन-वैभव और भोग का प्राचुर्य होने के बावज़ूद उनके भीतर मुक्ति की अभिलाषा जग गई, सो वे मुक्ति पथ के मुक्ति दूत बन गये। जिस दिन हम भी मुक्ति के आकाश के निमंत्रण को समझ जायेंगे, हमें स्वार्थी संसार की समझ आ जाएगी, हमारे क़दम मुक्ति - For Personal & Private Use Only 55 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथ के अनुयायी बन जायेंगे। निम्न बिन्दुओं पर और ध्यान दें - 1. हम मन नहीं, मन के साक्षी हों। मन के मुताबिक न करें। बुद्धि जैसा कहती है, वैसा करने की आदत डालें। 2. काम, क्रोध, झूठ, दोष चित्त में रहते हैं। चित्त की शुद्धि के लिए द्वेष करने वाले के प्रति प्रेम बढ़ाएँ, क्रोध करने वाले से क्षमा माँग लें, जहाँ वासना जाती है, वहाँ भगवान को खड़ा करें और अपने गुणों को बढ़ाएँ। ___3. अन्तरमन के भीतर की शान्ति, भीतर की स्वच्छता और भीतर हर हाल में आनन्द बरकरार रखें। सच्चिदानंद आत्मा का स्वभाव है, अपने इस स्वभाव को हर हाल में जिएँ। ___4. कर्म और उसके संस्कारों से मुक्त होने के लिए राग-द्वेष के नये अनुबंध न हों, इसके प्रति सजगता रखें और पुराने अनुबंधों के उदय होने पर ज्ञान और विवेक का उपयोग करें। 5. ध्यान में उतरें और व्यक्तिगत चेतना में परमात्म-चेतना का अनुभव करें। आत्मा की गहराई में उतरकर ही पूर्वजन्म का बोध पाया जाता है, पुनर्जन्म की कारा काटी जाती है और पूर्णजन्म की अमृत अवस्था को उपलब्ध किया जा सकता है। םםם 56 For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त करें आत्म-परिचय > किसी से पूछा जाए कि आपका परिचय क्या है तो वह सीधा अपना नाम बताएगा। परिचय यदि विस्तृत चाहिए तो पिता का नाम, शिक्षा और व्यवसाय आदि का जिक्र हो जाएगा। यह परिचय व्यावहारिक है। यह उसका वर्तमान और औपचारिक स्वरूप है। अपना स्थूल परिचय सबको मालूम है, पर उस परिचय से हम अनभिज्ञ हैं जो जीवन का आधार है। नाम तो पुकारू होते हैं और माता-पिता सांयोगिक । नाम तो हमें उसका तलाश करना है जो हम सबके भीतर बैठा गुमनाम है। हमें उसका परिचय प्राप्त करना है जो जन्म से पहले भी रहा है और मृत्यु के बाद भी रहेगा। न तो जन्म से हमारी शुरुआत है और न ही मृत्यु पर समाप्ति। जीवन तो एक धारा है - जन्म-जन्मांतर के संस्कारों की। काया बनती है, विस्तार पाती है, शिथिल होती है और एक दिन चिता पर चढ़ जाती है। यह यात्रा मनुष्य मात्र की है, प्राणिमात्र की है। मनुष्य का जन्म और 57 For Personal & Private Use Only www.jaihelibrary.org Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापन होता है, पर जीवन का न आदि है और न अन्त। वह रूपान्तरण पाता है। काया के चोले बदलता है। अलग-अलग मंच पर अलग-अलग अभिनय करता है। पर मिटता नहीं है। एक बार नहीं, मृत्यु के द्वार से सौ बार भी गुज़र जाए, तब भी वह अपना अस्तित्व बनाये रखता है। तो क्या जीवन पारा है? नहीं, जीवन पारा नहीं है। पर हाँ, समझने के लिए पारे की उपमा दी जा सकती है। वह टूटता है, बिखरता है, आग पर चढ़ता है, फिर भी जैसा था वैसा ही बना रहता है। तो जिसे हम 'जीवन' नाम देकर सम्बोधित कर रहे हैं, वह आखिर क्या है? इस 'क्या' के जवाब में ही हमारा आत्म-परिचय समाया हुआ है। ___ आत्म-परिचय प्राप्त करने का जो प्रयास है, पारम्परिक शब्दावली में उसी का नाम 'साधना' है। लोगों की दृष्टि में 'साधना' शब्द मानो कोई ऊपरी दुनिया का हौवा है। यह बड़ा कठिन मार्ग लगता है। यदि हम साधना और संन्यास को आत्म-परिचय का प्रयास कह दें तो प्रवेश का रास्ता काफी सहज लगेगा, बँधी-बँधायी धारणाएँ शिथिल होंगी, देखने-विचारने की दृष्टि सुलभ होगी। आत्म-परिचय करना थोड़ा कठिन ज़रूर है, पर अगर हम इसके साथ गंभीर होने की बजाय सहज हो जाएँ तो हम अपनी गहराई में त्वरित क़दम रख सकते हैं। शुरू में तो यह यात्रा मानसिक प्रसवपीड़ा जैसी कष्टकारक लग सकती है, पर धीरे-धीरे इतनी सुखद और रसपूर्ण लगेगी कि अपना मूल परिचय पाकर हम अहोभाव से प्रफुल्लित हो उठेंगे। जीवन की धारा ही बदल जाएगी। झूठे सुख के पीछे होने वाली पागल दौड़ खत्म हो जाएगी। आदमी फिर जिएगा बोधपूर्वक, होशपूर्वक,शान्ति और प्रेम का सागर बनकर। 58 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-परिचय दूसरी शब्दावली में आत्म-ज्ञान है। जनमानस में एक भ्रांति घर कर गई है कि आत्मज्ञानी नहीं हुआ जा सकता है जबकि आत्म-ज्ञान न टेढ़ा काम है, न ही विरला। अपने आपको पहचानना भला कौन-सा टेढ़ा काम है ! खुद को हर कोई जान सकता है। मैंने जितनी सहजता से अपने अंतस् के आकाश में उसका बोध पाया है, उससे ही मैं कह सकता हूँ - 'अपने आप से ऊपर उठ जाओ तो अपने आपको सहजतया पहचान लोगे।' शान्त मन ही आत्म-ज्ञान के रास्ते पर क़दम रख पाते हैं । जब तक हमारा मन शांत और निर्मल नहीं होगा हम अपने भीतर में स्थित नहीं हो पाएँगे। भीतर स्थित हुए बिना आत्म-ज्ञान के प्रकाश से साक्षात्कार नहीं हो सकता। मन के संवेग, उद्वेग, आकर्षण और विकार हमें बाहरी दुनिया में उलझाए रखेंगे।आत्म-ज्ञान का मार्ग ध्यान है। ध्यान के द्वारा हम मानसिक शांति पाने का अभ्यास करते हैं। शांत मन की स्थिति घटित होने पर ही हम अपने भीतर के अस्तित्व की अनुभूति में उतरते हैं। हम किसी मृत शरीर के साथ अपनी तुलना करके देख सकते हैं। जीवित शरीर और मृत शरीर में केवल एक ही तत्त्व का फ़र्क है और वह फ़र्क है प्राण-चेतना का। जब तक हमारे शरीर के साथ प्राणचेतना का साहचर्य है तब तक शरीर सुरक्षित है। प्राण-पखेरू उड़ते ही शरीर मिट्टी में मिला दिए जाने के योग्य हो जाता है। हम कभी किसी की अंत्येष्टि में शरीक हों तो मृत शरीर के साथ अपनी तुलना करके अवश्य देखें। आपको उसी क्षण आत्म-ज्ञान की पहली किरण मिल जाएगी। आत्म-ज्ञान होने का मतलब यह कतई नहीं है कि व्यक्ति संसार 59 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पलायन कर जाएगा। मैं पलायनवाद का विरोधी हूँ । जीवन को बोध के साथ जीया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति संत भी बनता है तो वह अंतरबोध के साथ संन्यस्त बने । व्यक्ति को मुक्त संन्यास नहीं करता। बल्कि आत्मबोध ही हमें मुक्ति की ओर ले जाता है। आत्म-बोध के बाद समाज से सम्पर्क समाप्त नहीं होता । दृष्टिकोण बदल जाता है । स्नेह रहता है, पर उस स्नेह और प्रेम के प्रतिकार में किसी तरह की प्राप्ति की आकांक्षा नहीं रहती । वह औरों को प्रेम देता हुआ इसलिए नज़र आएगा क्योंकि उसने अपने आपको जानकर यह बोध प्राप्त कर लिया है कि उसमें भी वही सत्ता है जो सबमें है । प्रेम उसका स्वभाव बन जाता है । उसे प्रेम और पूजा में कहीं कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता । तब मनुष्यता में रहने वाली पूज्यता की भावना भी सरलता में तब्दील हो जाती है । निन्दक - प्रशंसक सब पर उसकी समान दृष्टि रहेगी । वह सबसे प्यार करेगा । वह सबके लिए विश्व - मित्र बन जाएगा। सबसे प्रेम, सबकी सेवा उसके जीवन का दिव्य मंत्र हो जाएगा । आत्म-बोध के लिए तपस्या करना कोई निहायत ज़रूरी नहीं है । आत्मबोध के मायने अपने आपको प्रताड़ित करना नहीं है। यह तो स्वयं को समझना है । फिर देह तो रहेगी, पर देह के विकार उसे उद्वेलित नहीं कर सकेंगे। वह देह के धर्म को जान चुका होगा। रोग तो काया में उठेंगे, पर उसकी पीड़ा उसे सालेगी नहीं । आत्म-परिचय तो बस यह समझो कि कंकर को कंकर और हीरे को हीरे के रूप में पहचानना है । फिर व्यक्ति कंकर को कंकर जितना ही महत्त्व देगा और हीरे को हीरे जितना ही । झरने को झरने और पर्वत को पर्वत जितना । आत्म-तत्त्व को समझने वाला व्यक्ति हंस-दृष्टि का स्वामी हो जाएगा । For Personal & Private Use Only | 61 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभी तो हम भ्रम में हैं, कंकर हीरे एक-साथ रहकर धोखा दे जाते हैं और हम कंकर - सुख को ही हीरे का सुख मान बैठते हैं । यह वास्तव में चित्त की दूषितता है, अपवित्रता है। जीवन में बस अन्तरदृष्टि चाहिए ताकि चित्त के संस्कारों को साक्षी रूप में देख सकें, उसकी संवेदनाओं के प्रभाव से स्वयं को मुक्त कर सकें । परिचय और प्रसिद्धि के लिए नाम को ही आधार मान लेना, मात्र कर्त्ता - भाव का विस्तार है । कर्त्ता - भाव व्यक्ति का अहंकार है । नामगिरी, मात्र मन को दिया जाने वाला सान्त्वना पुरस्कार है। हम नाम एवं कुल-परिचय को व्यावहारिक परिचय तक ही सीमित रखें । अगर हमें यह अहसास हो जाए कि हर नाम आरोपित है, हमारा व्यक्तित्व नाम से हटकर भी है तो नाम से जुड़ी प्रशंसा - निंदा के प्रति वीतराग हुआ जा सकता है । नामकरण तो काया का होता है जबकि जीवन काया के आर-पार भी है । काया से हटकर वह क्या है, जीवन के उस मूल स्रोत को जीने के लिए ही ध्यानयोग है। मैं कौन हूँ - इस प्रश्न का उत्तर और अनुभव पाने के लिए ध्यानयोग मानो राजमार्ग है। ध्यान के दर्पण में अपने आत्मिक प्रश्नों का उत्तर साफ दिखाई देगा। केवल इतना ही नहीं, हर तरह के सच-झूठ का वहाँ इंसाफ मिल जाएगा। सम्भव है, सन्दर्भ न भी बदले, पर दृष्टि बदल जाए तो सन्दर्भ के सत्य तो साफ हो ही जाते हैं । आत्म-परिचय के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति इस बात का मनन करे कि वह कौन है? उसकी चेतना कहाँ, किन बातों या स्वार्थों में उलझी हुई है? हम अपने वास्तविक स्वरूप से मुखातिब होने के लिए अपने नक़ाबों को उतारें। आदमी ने चेहरे पर चेहरे पहन रखे हैं । एक 62 | -- For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेहरे पर लोग कई चेहरे लगा लेते हैं। नकली सूरत के पीछे असली चेहरा दबा रह जाता है । हमारा असली चेहरा, असली स्वरूप क्या है, वह ज्ञात होना चाहिए। ध्यान हमें अपनी प्रामाणिक निजता की ओर ले जाता है, अपने सच्चे स्वरूप के प्रति सजग होना ही धर्म और अध्यात्म में प्रवेश है । 'मैं कौन हूँ' इस प्रश्न से अन्तर - प्रवेश की भूमिका तैयार होती है । मैं कौन हूँ - आत्म-परिचय के लिए यह सर्वसिद्ध मंत्र है। अभी हम अपने-आप से पूछेंगे कि मैं कौन हूँ, तो जवाब आएगा मैं यह हूँ या मैं वह हूँ। पर नहीं, ये ज़वाब मन की चालें हैं। मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ, शिक्षित हूँ या अशिक्षित हूँ, अमीर हूँ या गरीब हूँ - ये उत्तर मन के हैं । हम इसे ध्यान -प्रक्रिया के अन्तर्गत लें और अपने-आप में इसे टटोलते रहें। अपने में देखते रहें। अपने में अपना अहसास करें। हम अपनी साँसों में डूबें, शरीर को और शरीर की संवेदनाओं को जानें, उसके ज्ञाता - दृष्टा हों। अपने अंतरमन को समझें, अंतरमन की वृत्तियों के ज्ञाता - दृष्टा हों । शरीर, विचार और मन के प्रभावों से मुक्त होकर ही हम अपनी आत्म- चेतना से रू-ब-रू हो पाएँगे। सुबह, दोपहर, साँझ, रात, जब भी फुर्सत के क्षण हों, शान्त भाव से अपने में उतरें । धैर्य और थिरता से स्वयं में देखते रहें । जब-तब मनन करते रहें । मनन से मार्ग मिलता है। 'कर विचार तो पाम' । विचार करेंगे, तो उसका परिणाम भी पाएँगे । हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है? जो मेरा नाम है, मैं उतना भर हूँ या मेरा अन्य कोई स्वरूप भी है ? जीवन में इतने मानसिक संत्रास क्यों हैं? क्रोध और विकार क्यों इतने व्यथित करते हैं? माता-पिता जीवन के निर्माता हैं या जीवन के निमित्त संयोग For Personal & Private Use Only | 63 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर? ये वे बिन्दु हैं जिन पर किया गया मनन अनायास हमें अन्तर्मुखी बनाता है। हमारे क़दम आत्मा की ओर, अस्तित्व की ओर बढ़ने लगते हैं। जब जवाब लेते-देते शान्त हो जाएँ तो इसे अपने लिए अमृत वेला मानें । उस शान्त स्थिति में जवाब की बजाय बोध होगा। जिसका बोध हो, वही हैं हम।वही है चेतन, वही है आत्म-अस्तित्व।। __ उसे हम नाम चाहे जो देना चाहें, हमारी मौज। उसे हम जीवन कहें, महाजीवन; आत्मा, परमात्मा या शून्य। शब्द गौण है, बोध महत्त्वपूर्ण है। वह जो भी है, हमारा आत्म-परिचय है, हमारा अस्तित्व-बोध है। आत्म-परिचय यानि स्वयं का परिचय। आत्मा यानि स्वयं की सत्ता। ध्यान के द्वारा अपने में प्रवेश करके ही हम अपने उन कलुषित संस्कारों को, मनोविकारों को बोधपूर्वक काट सकते हैं जिनका हमने न जाने कब से संचय-संग्रह किया है। अन्तस् का स्पर्श किये बगैर तो मनुष्य का मनोमन अन्तर्द्वन्द्व सदा जारी रहेगा - विकार और शरीर-सुख के बीच; जीवन और जगत् के बीच।वह कथनी-करनी के भेद को सदा दोहराएगा। भीतर पाप जारी रहेगा, बाहर पुण्य प्रदर्शित होता रहेगा। सामान्यतः होता भी यही है कि हम लोग भोग और योग दोनों को ही जीवन से जोड़े रखते हैं । योग की बातें हो जाती हैं, अंतरमन में भोग जारी रहता है। ___ हमें अपने आपको समझना होगा। स्वयं के साथ न्याय करना होगा। दोगलापन ठीक नहीं है। अपने आपको ज़्यादा महान् दिखाने की महत्त्वाकांक्षा आदमी को दोगला बनाती है। संसार हो या संन्यास, दोनों ही न तो इसमें बाधक हैं और न ही सहायक। अपने-आपको पहचानना हो तो इसमें दाढ़ी बढ़ाना या 64 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा मुंडवाना, चोटी लटकाना या भभूत चढ़ाना अथवा नाम-वेश बदलना कहाँ आधारभूत बनते हैं? अपनी ओर से पूरी तरह समर्पित और अभीप्सित तैयारी है तो हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, प्रवेश पाया जा सकता है, अपने आपको पहचाना जा सकता है। अपने आपको शिक्षित करने के लिए हमें वर्षों लगाने पड़ते हैं। हर रोज़ घंटों पढ़ना पड़ता है। आत्मज्ञान के लिए तो न तो वर्षों की ज़रूरत है और न ही जन्मों की। केवल थोड़ा-सा अपने में उतरने और स्थितप्रज्ञ होने का अभ्यास करने की ज़रूरत है। मैंने मुनित्व का वरण किया, लेकिन मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मेरे आत्म-ज्ञान में मेरा यह मुनित्व उतना बड़ा साधन नहीं बना जितना कि अपने आप में, अपने आपके प्रति जगने वाली जिज्ञासा। व्यक्ति ही साधक बनता है और व्यक्ति ही बाधक।साधन सहायता दे सकते हैं, पर पहुँचा नहीं सकते। पहुँचता तो व्यक्ति खुद है। हाँ, व्यक्ति की चित्त-शुद्धि में ये संयम-साधन सहायक अवश्य बनते हैं। मेरे देखे, अपने आपको जाने बिना व्यक्ति स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं हो सकता और स्वयं के प्रति ईमानदार हुए बगैर अपने अहंकार, विकार और कषाय-वृत्तियों से मुक्त नहीं हो सकता। विकार-रहित चित्त का नाम ही निर्वाण है, मानव की मुक्ति है। स्वयं को जानकर ही संसार की सत्ता को जाना जा सकता है। अहिंसा को जीवन में वास्तविक रूप से चरितार्थ करने के लिए स्वयं को जानना पहली अनिवार्य शर्त है । आत्म-ज्ञान के अभाव में अहिंसा, करुणा और दया आरोपित धर्म कहलाएँगे, नैसर्गिक धर्म नहीं। स्वयं के सुख-दुःख को जानकर ही दूसरों के सुख-दुःख को पहचाना जा सकता है। फिर दूसरों के प्रति हम वही व्यवहार करेंगे जो हम अपने 65 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति करना चाहते हैं । दूसरों के साथ उस बरताव को करने से सदा परहेज रखेंगे जो हमारे अपने लिए कष्टप्रद या अमंगलकारी हो । कार्य वही किया जाना चाहिए जो स्व पर प्रकाशक हो, स्वयं के लिए भी कल्याणकारी हो । हम कुछ मूलभूत बातों पर ध्यान दें - 1. जीवित और मृत दोनों को देखकर मनन करें कि दोनों में क्या अन्तर है। वह वस्तु क्या है जिसके साथ रहने पर 'जीवन' के चिन्ह प्रकट होते हैं और अलग होने पर 'निर्जीव' के । 2. जन्म, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु के मर्म को समझें और पड़तालें कि हर परिवर्तन के बावज़ूद वह कौन है जो फिर भी अपरिवर्तित रहता है । 3. देह के सुखों में ही शान्ति का साम्राज्य छिपा है तो फिर देह मरती क्यों है? क्या देह के आयुष्य जितना ही जीवन है ? 4. वह कौन है जो हमारे जन्म-मृत्यु का आधार है, हमारे हर कार्य का प्रेरक है तथा सुखद- दुःखद हर स्थिति का अनुभव करता है ? 5. हम जहाँ यह सोचें कि मैं कौन हूँ, वहीं यह भी विचार करें कि वर्तमान में मेरी चेतना कहाँ है? मैं मोह-मूर्च्छा के किस तिलिस्म में उलझा हूँ । हम अपनी मनीषा में इन जिज्ञासाओं को उतरने दें और धैर्यपूर्वक तलाशें इनके समाधान । ये समाधान ही देंगे हमें जीवन की गहराई, जीवन के परम सत्य की ऊँचाई । 66 | For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RestaureaWAIRana पहचानें, जीवन का अंतरंग मनुष्य के सामने यह एक बड़ा पेचीदा प्रश्न है कि वह कौन है? क्या वह किसी माता-पिता का पुत्र मात्र है? किसी का मित्र, भाई या पति भर है अथवा इसके अलावा भी कुछ है? सबके बीच जीते हुए भी उसे अकेलापन क्यों लगता है? वह हाड़-माँस का चलता-फिरता पुतला भर है या इसके अलावा भी उसका अपना कोई अस्तित्व है? मनुष्य यह सब तो है ही, इससे ऊपर भी है। हर प्राणी में उसकी अपनी एक आत्म-सत्ता है जो उसके अन्तरजीवन में व्याप्त रहती है। भाई, बहिन, मित्र सब व्यवहारवश हैं। देहातीत दृष्टिकोण में या तो सभी स्वतंत्र सत्ता हैं या फिर सभी एक ही परम चेतना के अलगअलग माटी के दीये हैं। संबंध तो शारीरिक और मानसिक होते हैं, बनते-बिगड़ते रहते हैं, पर हमारी अन्तस्-चेतना इस बनने-बिगड़ने के हर दस्तूर से ऊपर है। अपने पड़ौसी के घर-आँगन में बँधे पिंजरे और उसमें राम-राम | 67 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते तोते को देखकर ऐसा लगता है कि यह शरीर भी तो आखिर एक पिंजरे जैसा ही है। 'आत्मा' के नाम से पहचानी जाने वाली सत्ता इस पिंजरे में रहने वाले प्राण-पखेरू है। जीवन न तो अकेला शरीर है और न ही मात्र आत्मा। जीवन दोनों का संयोग है - शरीर और आत्मा की मिली-जुली सरकार है। शरीर यदि मंदिर है तो आत्मा मंदिर में रहने वाली देवता। शरीर भौतिक पदार्थों का मिश्रण और रासायनिक विकास है। आत्मा चैतन्य-शक्ति है, भौतिक पदार्थों के मिश्रण को प्राणवन्त करने वाली ऊर्जा है। शरीर में आत्मा का केन्द्र अन्तर-मस्तिष्क है।आत्मप्रदेशों का सर्वाधिक घनत्व मस्तिष्क में और मस्तिष्क के इर्द-गिर्द रहता है। इस घनत्व को हम एक तरैया की तरह समझें। यह शिव मंदिर में बनी जलेड़ी की तरह है। जलेड़ी की नाल पृष्ठ मस्तिष्क की ओर है और उससे प्रवाहित होने वाली संवेदनाएँ रीढ़ की ओर, हृदय और नाभि की ओर जाती हैं। किसी चीज़ का स्पर्श होते ही संवेदना होती है और यह संवेदना मनोमस्तिष्क और शरीर के विभिन्न केन्द्रों को प्रभावित और आन्दोलित करती है। हमारे शारीरिक और आन्तरिक जीवन का यह एक सहज विज्ञान है। हम अपने जीवन का अंतरंग समझें। मनुष्य दो प्रकार की शक्तियों का स्वामी है जिनमें एक शरीरगत है और दूसरी चेतनागत। शरीरगत शक्ति स्थूल है और इसका केन्द्र नाभि तथा उसके नीचे है। शरीर का ऊर्जा-कुण्ड यहीं निर्मित है। नये शरीरों का निर्माण इसी स्थूल शक्ति से होता है । यह शक्ति शरीर का बीज है। चेतनागत ऊर्जा शरीर के सबसे ऊपरी भाग में स्थित और क्रियान्वित रहती है। अग्र मस्तिष्क में आत्म-चेतना के सर्वाधिक 68 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेश रहते हैं, किन्तु मध्य मस्तिष्क में इसकी ऊर्जा का स्पष्ट अनुभव होता है। आम आदमी में सत्तर प्रतिशत आत्म-प्रदेश तो शान्त-सुषुप्त स्थिति में रहते हैं। तीस प्रतिशत जो भाग सक्रिय रहता है, उसमें बीस प्रतिशत मध्य और पृष्ठ मस्तिष्क में है, जबकि शेष दस प्रतिशत पूरे शरीर में व्याप्त रहता है। जब मनुष्य के आयुष्य-कर्म क्षीण हो जाते हैं तो ये आत्म-प्रदेश शरीर को केंचुली की तरह छोड़ देते हैं। उन्हें बाहर निकलने के लिए शरीर की त्वचा का एक छिद्र भी काफी है। ___ अग्र मस्तिष्क मनुष्य का ज्योति-केन्द्र है। मानवीय चेतना का यह मूल केन्द्र होने के कारण यही दर्शन-केन्द्र कहलाता है और यही तीसरी आँख यानि शिवनेत्र/प्रज्ञानेत्र है। जीवन को सारी आज्ञाएँ यहीं से प्राप्त होती हैं, इसीलिए योग ने इसे 'आज्ञा-चक्र' नाम दिया है। मैं इसे ज्योति-केन्द्र या चैतन्य-केन्द्र कहना पसन्द करूँगा, क्योंकि इस उपमा की गहराई में सारी उपमाएँ समाविष्ट हो जाती हैं। यह वास्तव में आध्यात्मिक ज्ञान-शक्ति का केन्द्र है। हमारे जीवन का एक और जो महत्त्वपूर्ण केन्द्र है वह है हमारा अन्तरहृदय । हृदय से जीवन-संचार की व्यवस्था होती है। यह नाभि और मस्तिष्क के बीच का सेतु है। आत्म-चेतना में वही व्यक्ति जी सकता है जो नाभि के इर्द-गिर्द फैले जलाशय से कमल की तरह ऊपर उठ चुका है। नाभि के नीचे जीना ऊर्जा का निवास है, नाभि से ऊपर हृदय में जीना ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण है। हृदय में जीना या हार्दिक होना सदा आनन्द में विहार करना है। हमारे अन्तरहृदय में स्वर्गलोक है, देवत्व का निवास है। व्यक्ति के निजी परमात्म-स्वरूप का बीजांकुरण यहीं होता है। हृदय वास्तव में मनुष्य का मानसरोवर है। यहीं खिलता है जीवन की प्राण-ऊर्जा का कमल। 169 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन मनुष्य की सबसे चपल - चंचल वस्तु है। यह चेतनागत ऊर्जा की ही एक सशक्त अभिव्यक्ति है । मन बड़ा विचित्र है | स्वर्ग और नरक मन के ही दो पहलू हैं। भौरे की तरह फूलों पर मँडराना उसका धर्म है। इसे दुलत्ती तो तब खानी पड़ती है जब फूल शूल बन जाते हैं। सागर में नहाने का मज़ा तब किरकिरा पड़ जाता है जब उसका खारापन भी मन के हिस्से आता है । मन मनुष्य की मूल बीमारी है । शरीर की स्वस्थता के लिए मन का स्वस्थ होना ज़रूरी है । मन के रोगों और विकारों का उपचार कर दिया जाए तो शरीर के रोग तो सहज दूर हो जाते हैं। बुद्धि भी मन जैसी ही एक सशक्त क्षमता है, पर मन उच्छृंखल होता है, बुद्धि विकासमान होती है। मन कल्पनाशील होता है, बुद्धि ज्ञान और विवेकशील । जीवन में मन की बजाय बुद्धि की प्रधानता होनी चाहिए। प्राण की भूमिका प्राणियों की है, मन की भूमिका मनुष्यों की है, बुद्धि की भूमिका ऋषिपुरुष और विज्ञानियों की है । मन और पार्थिव प्राण के प्रभाव और स्वभाव से मुक्त होने पर ही बोधिलाभ और कैवल्य - लाभ हो सकता है । मन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी अपनी पहुँच है | चेतना मन के ज़रिये कहीं भी अपनी पहुँच बना सकती है। वह हर चीज़, दृश्य या कल्पना को अपने में साकार कर सकती है। मन और बुद्धि वास्तव में मनुष्य की अव्यक्त चेतना के अभिव्यक्त रूप हैं। मन में विकल्प उठते हैं, बुद्धि विचार करती है, हृदय में भाव अवस्थित होते हैं । विकल्प तो चौराहे पर भटकना है। विकल्पों का कोई लक्ष्य नहीं होता । यह तो हवा के झोंके के साथ लहरों की For Personal & Private Use Only 71 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठापटक है। विचार लक्ष्योन्मुख होते हैं। अगर बुद्धि शांति से किसी भी चीज़ को सोचे तो वह मार्गदर्शी निष्कर्ष को उपलब्ध कर लेगी । भाव अवस्था है । भावों का विचार या विकल्प से सम्बन्ध भले ही हो, पर मन और बुद्धि के द्वारा भावों की हत्या नहीं की जा सकती । सच तो यह है कि जैसी भाव - अवस्था होती है, मनुष्य का मन तदनुसार ही सोचा- विचारा करता है। भाव विकल्प और विचार दोनों से भी गहरी मनःस्थिति है । हमें जिस मन का अनुभव होता है, वह चेतनागत व्यक्त संस्कारों की अभिव्यक्ति के कारण है । यह मनुष्य का चेतन मन है। मूल आत्म- चेतना तो हमारे गूढ़ मन में रहती है। चेतन और अवचेतन मन के पार लगें तो ही गूढ़ता में प्रवेश होता है। चेतन मन सक्रिय रहता है, अवचेतन मन सुषुप्त रहता है। जिसे हम चित्त कहते हैं, वह वास्तव में मनुष्य का अवचेतन मन ही है। यह मनुष्य का अव्यक्त मन है I वृत्तियाँ इस अवचेतन मन से ही उठा करती हैं। जन्म-जन्मान्तर के संस्कार और संवेग ही मनुष्य की अन्तरवृत्तियाँ हैं । जब तक वृत्तियाँ समाप्त न हो जाएँ, तब तक ये अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं । वृत्तियों को समाप्त करने का सबसे सुगम मार्ग तो आत्मबोध को रखते हुए, अन्तर-जागरूकता के साथ उसका उपयोग या उपभोग कर लेना है। यद्यपि उपयोग और उपभोग का मार्ग खतरे से भरा है, उसमें भटकाव का भय है, पर अगर सही में आत्मबोध जगा है तो वह व्यक्ति को भटकने से पहले ही उबार लेता है । वृत्तियों से छुटकारा पाने के लिए सतत साक्षित्व प्रकट हो जाए, तभी बहुत बड़ी मदद मिल सकती है। मेरे देखे तो, आत्मबोध और आत्म- चौकसी को दीपक की तरह हाथ में रखें और शेष सब कुछ नियति पर छोड़ दें । जो 72 | For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो, जैसा हो, उसके दृष्टा बने रहें। ___ आज की नियति वास्तव में आत्मा का अतीत रहा है। आत्मा न तो पूरी तरह शुद्ध रही और न ही मुक्त । वह अपने संस्कारों के सातत्य के कारण अथवा विकृत प्रकृति और योगानुयोग के कारण सदा-सदा से संसार में रही है, संयोग-संबंधों के मकड़जाल में भ्रमणशील रही है। आत्मा किस धाम से आयी, इसको पैदा किसने किया, इस सन्दर्भ में मौन रहना ही सार्थक है। बस, यह भीतर के आकाश में व्याप्त एक अभौतिक ऊर्जा है, निज सत्ता है, सम्पदा है। जब गहरे ध्यानयोग में, परिपूर्ण शून्य में हमारी बैठक होती है तो आत्मा आनन्द और ज्योतिस्वरूप चैतन्य-तत्त्व के रूप में ही ज्ञात होती है। गूढ मन में हम अपनी नियति, संवेग एवं संयोग-संबधों के भी साक्षी होते हैं। अपने अतीतगत संयोगों को देखकर ही हमने यह जाना कि मनुष्यात्मा इस एक जन्म की ही ईज़ाद नहीं है। इस जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व रहा है। जिन कर्म-प्रकृतियों को हम आज अपने अन्तरमन में अनुभव कर रहे हैं, उसका कर्ता पहले भी रहा होगा। एक बात तय है कि हम कर्म-प्रदेशों, वृत्तियों और संयोगों से सदा घिरे हुए रहे हैं । अशुद्धि और बन्धन, कम हों या ज़्यादा, सदा हमारे साथ रहे हैं। दुर्भाग्य और सौभाग्य के नक्षत्र हमारी ही निर्मिति हैं। कालचक्र की चाल में कौन सदा एक-सा रह पाया है? दुनिया एक मुसाफिरखाना है और हम इसमें आते-जाते रहते हैं। स्थान बदलते रहे हैं, पर धरती तो यही की यही है। मृत्यु हमें धोखा ज़रूर देती रही, पर हम हर बार नयी तैयारी के साथ जनमते रहे हैं। स्वर्ग और नरक को हमने यहीं पर जिया और भोगा है। सुख की स्थिति में आत्मा में स्वर्ग प्रकट होता है और दुःख की अवस्था में | 73 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा अस्तित्व नरकमय होता है। करुणा और प्रेम हमें स्वर्ग की विभूति बना जाते हैं, काम और क्रोध हमें नरक के तमस् में तब्दील कर डालते हैं। स्वर्ग और नरक स्थान-सूचक नहीं, स्थिति सूचक हैं । अतीत का आत्म-कर्तृत्व हमारे वर्तमान का भाग्य बन जाता है। भाग्य सिकन्दर भी हो सकता है और भिखमंगा भी। भाग्य चाहे जो उठापटक करे, अगर मनुष्य को जीने की कला आ जाए तो वह नरक को भी स्वर्ग में बदल कर जी जाता है। दुनिया का काम ठोकरें मारना है। उसके लिए जिंदगी एक खिलौना है। जो जीवन से खेलते हैं, उनसे जीवन की कैसी शिकायत करनी! हमारी शिकायत सुनने वाला तो हमारे अपने भीतर बैठा है। पर अपने से भी शिकायत क्यों करनी! क्योंकि जो हो रहा है, वह हमारे अपने ही किये हुए का भुगतान है। हम सहज हों, आत्म-स्थिति का अवलोकन करें और नये कर्मों के प्रति सतर्क रहें। कोई कैसा भी कर्म क्यों न करे, पर हर किसी को याद रखना चाहिए कि उसे अपने हर कर्म का भुगतान करना ही होगा। मैंने अपने अव्यक्त कर्म और कर्मोदय को देखा है, अपने अतीतगत संयोगों को पहचाना है, उसके परिणाम देखे हैं, इसीलिए कहता हूँ कि अपने किये गये कर्मों की सजा से बचा नहीं जा सकता। हम अनंत-अनंत सम्भावनाओं के पुंज हैं । चित्त, मन, हृदय और बुद्धि के सार्थक पहलू भी हैं। हम अपनी अन्तरात्मा को मूल्य दें। भीतर का एकान्त हमें अपनी ओर बुलावा भेजता है। हम उस ओर ध्यान दें। मन पर बुद्धि का आधिपत्य होना चाहिए। हमें हृदयपूर्वक जीना आना चाहिए। मन बुद्धि का भटकाव है और बुद्धि भटकते मन का 74/ For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन्द्रित होना है, अलग-अलग धाराओं में बहने की बजाय एकधार हो जाना है। मन चेतना का बाहर की ओर बहना है, बुद्धि चेतना का अन्तर-मस्तिष्क में जमाव है। मन कल्पना करता है, बुद्धि स्मरण रखती है। मन इच्छा करता है, बुद्धि इच्छा-पूर्ति की राह दर्शाती है। कल्पना, कामना और प्रतीति मन के कर्तृत्व हैं, जबकि विचार, निर्णय, धारणा, ज्ञान, स्मृति ये सब बुद्धि के धर्म हैं। __ हमारी आत्म-चेतना जैसे-जैसे सघन और जाग्रत होती जाती है, वैसे-वैसे बुद्धि की क्षमता बढ़ती जाती है। शान्त मन से बढ़कर कोई आनन्द का स्वामी नहीं है और जाग्रत बुद्धि से बढ़कर कोई विद्वान् नहीं है ।शान्त मन मनुष्य के लिए अन्तरज्ञान का रोशनी-भरा द्वार है। मन हवा है, मस्तिष्क दीया है, बुद्धि लौ है और प्रज्ञा प्रकाश है। हृदय वह तत्त्व है जो प्रकाश का आनन्द उठाता है । मन नीचे गिराता है, हृदय ऊपर उठाता है। हृदय का नाभि के नीचे की ओर बहना संसार है, जबकि ऊपर की ओर झाँकना मुक्ति की पहल है। यह ब्रह्मविहार है। हम हमारे ज्योति-केन्द्र पर एक रसभरी, परम धन्यता के आनन्द में डूबी दस्तक हैं, भोर हैं। आत्म-चेतना की प्रफुल्लता के लिए हमें मनोमस्तिष्क को सदा प्रफुल्लित रखना चाहिए। हम शरीर नहीं, शरीर में हों, मन नहीं, मन में हों। अपनी दिव्यता में ही देवत्व है। मन में पवित्रता और हृदय में प्रफुल्लता सबके लिए यही सर्वश्रेष्ठ मंत्र है। ___ जीवन में चाहे अनुकूल परिस्थिति बने या प्रतिकूल - दोनों ही हालत में अन्तरमन को निष्प्रभावी रखना व्यक्ति का देहातीत होकर जीना है। मैं कौन हूँ - इसका सदा बोध रखें ताकि निंदा-प्रशंसा, पीड़ा-व्यामोह हमें घेर न सकें। चेतना की मुस्कान हर हाल बनी रहे। 75 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सोऽहं' - मैं वह हूँ। शिवोऽहम् – मैं शिव हूँ, शिव रूप हूँ। कायगत मन्दिर में शिवतत्व विराजमान है। शिव व्यक्ति-वाचक नहीं, स्वभाव-वाचक है। शिव यानी कल्याण। जिन गुणों से दिव्यता, पवित्रता और पूर्णता आत्मसात् हो, उसी से मनुष्य का, सृष्टि का कल्याण है, निर्वाण है। सार रूप में निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दें - 1. चित्त के तृष्णा, राग-द्वेष, काम-क्रोधजनित संस्कार ही हमें भव-चक्र में भटकाते हैं। अपने में घर कर चुके और पुनः पुनः उदयशील होते संस्कारों को समझें, उनके प्रति जागरूकता और बोध-दशा का उपयोग करें। 2. मन का सार्थक सकारात्मक उपयोग करें, व्यर्थ की चिन्ता और कल्पनाओं में उसकी ऊर्जा नष्ट न होने दें। सार्थक बिन्दुओं पर चिन्तन करें, सकारात्मक सोचें, ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा मन को बेहतर दिशा प्रदान करते रहें। 3. हृदय शान्ति और पवित्रता का तीर्थ है। हम शरीर से ज्यादा हृदय को मूल्य दें, हृदयवान होकर जिएँ। 4. बुद्धि का कार्य ज्ञान है। जीवन जितना ज्ञानमूलक होगा, जीवन के उतने ही बेहतर परिणाम होंगे। 5. बुरा न देखें, बुरा न बोलें, बुरा न सुनें, लेकिन ध्यान रखें चौथा बन्दर कहता है - बुरा न सोचें। स्वास्थ्य के लिए सात्त्विक आहार लीजिए, शान्ति के लिए ध्यान कीजिए, पवित्रता के लिए ज्ञान और बोध का उपयोग कीजिए और 76/ For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध के लिए स्वाध्याय कीजिए और प्राप्त अनुभवों का सार निकालिए। प्रतिदिन नियमित आधा घण्टा ध्यान और आधा घण्टा स्वाध्याय जीवन के लिए अमृत और संजीवनी औषधि का काम करेगा। 000 | 77 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-स्मृति और स्थिति विश्व एक रंग-बिरंगा उपवन है। मनुष्य इस उपवन में खिले फूलों में सर्वाधिक सुन्दर है। हमारा रंग-रूप और नाक-नक्श सौन्दर्य के ही चरण हैं, परन्तु विचारों और भावों की सुन्दरता के बगैर मनुष्य का सौन्दर्य अधूरा है। जीवन न तो केवल काया पर ही अवलम्बित है और न ही हर क्षण काया के रूप-रस में जिया जा सकता है। अन्तरात्मा की सुन्दरता ही मनुष्य को सम्मान और महानता दिलाती __ सभी जानते हैं कि शरीर अन्ततः नाशवान् है, पर शरीर के साथ काफी संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं। शरीर साधन है और हमें इसे साधन जितना महत्त्व देना ही चाहिए। आत्मा और परमात्मा से प्रेम करने वाला भी अपने शरीर को त्यागना नहीं चाहता। इसकी शुद्धि और स्वच्छता आवश्यक है, पर अन्तर-हृदय की निर्मलता एवं मधुरता उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है। 781 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमेश्वर प्रकृति की डाल-डाल, पात-पात है। मानवता का क्षेत्र अत्यन्त विस्तीर्ण है। जहाँ तक मनुष्य के स्वामी का सवाल है, वह उसके अपने भीतर बैठा है। मनुष्य की गंदी वृत्तियों के कारण भीतर बैठा हुआ स्वामी मानो कुत्सित हो गया है। स्वामी कुरूप रहे और स्वामी का रथ गारित किया जाता रहे तो इसमें कोई तुक नहीं है। अन्तर-सौन्दर्य तो सदा अपना शाश्वत मूल्य रखता है। एक बार कुरूप चेहरा चल जाएगा, मगर कुरूप आत्मा कभी नहीं चलेगी। हमें अन्तरमन में विराजमान सत्य-शिव-सौन्दर्य के स्वरूप पर ध्यान देना चाहिए। हमें अपने स्वभाव को सुन्दर और आकर्षक बनाना चाहिए। सुन्दर यहाँ बहुत कुछ है पर, तुम सुन्दर हो सबसे बाँके। झूठी है काया की माया, सत्य-हृदय से शिवता झाँके। हमारे अन्तर-हृदय में शिवत्व का बीज है, परन्तु स्वयं को मात्र दैहिक मान लेने के कारण ही मनुष्य भूल-भुलावे में भटका है। अगर व्यक्ति अपने अन्तर-जगत में झाँक ले, अन्तर-शांति और अन्तरसौन्दर्य को मूल्य देना प्रारम्भ करे तो जीवन-मूल्यों में आ रही गिरावट की रोकथाम की जा सकती है। मनुष्य अपनी आत्मा और उसके मूल्यों को भूल चुका है। उसके लिए जीवन कोई सनातन तीर्थ-यात्रा नहीं, वरन् जन्म से मृत्यु तक का सफर भर है। जीवन जन्म-जन्मान्तर की परम्परा है, यह संसार का सबसे गहरा सत्य है। आखिर जितने भी सत्य हैं, सब जीवन की गोद में ही पलते हैं। यहाँ तक कि हर तरह की बदी और वीभत्सताएँ भी जीवन में ही अपना घर बनाए रखती हैं। | 79 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन न मंगल है और न अमंगल । वह कोरे कागज की तरह है। यह हम पर निर्भर है कि हम उस पर कीचड़ उछालें या इन्द्रधनुष उकेरें। राक्षस और देवता दोनों जीवन के गिरते-चढ़ते आयाम हैं। मनुष्यता दोनों के मध्य है। मनुष्य यदि अपने भीतर बैठे स्वामी से प्रेम करने लग जाए तो जीवन ही मानवता का वह पहला मंदिर होगा जहाँ से सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की घण्टियों की टंकारें सारे जहान में गूंजती हुई दिखाई देंगी। खुद को भूल बैठने के कारण ही व्यक्ति माया के मकड़जाल में उलझा हुआ है। आत्म-बोध के अभाव में ही मनुष्यात्मा स्वयं को भूली-बिसरी बैठी है। वह भीतर बैठे भगवान को नहीं, वरन् भीतर के स्वार्थ को ही मूल्य देती रही है। उसके लिए जीवन अतीत का नया संस्करण नहीं, वरन् मन की खटपट के चलते शरीर से शरीर की खिलवाड़ भर है। किसी समय एक घटना बहुचर्चित रही है कि एक शेर का बच्चा अपना आपा भूलकर भेड़ों के टोले में जा घुसा। जात का असर! वह गरजने की बजाय 'मिमियाया' करता। इस तरह उसकी जिंदगी ही गुज़र गयी, पर जब उसने दूसरे शेरों को गरजते हुए सुना और भेड़ों पर टूटते देखा तो पहली बार उसके अन्तरमन में यह प्रश्न कौंधा - 'वो' भेड़ नहीं हैं, तो फिर मैं कौन हूँ? अपने इस प्रश्न के जवाब में वह काफी भटका, वर्षों विचलित और अभीप्सित रहा। एक दिन अकेले ही वह जंगलों और गुफाओं की ओर चल पड़ा। रास्ते में पड़े सरोवर में पानी पीने के लिए उतरा। पानी शान्त और निस्तरंग था। वह आईने का काम कर गया। उसे आत्मबोध हुआ। जग उठी सत्ता – भीतर सोये पड़े सिंहत्व की, निजत्व की। मनुष्य का दुर्भाग्य ! उसने सदा मुखड़ा ही दर्पण में देखा, अपने 181 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपको देखने की कोशिश नहीं हुई । सिकन्दर या हिटलर ने चाहे जितने लोगों को अपने प्रति झुकाया होगा, पर सम्मान गाँधी-पुरुष ही पा सकते हैं, पूजा बुद्ध पुरुषों की ही होती है। 'संबोधि' कोई धर्म या धर्म की शब्द- परम्परा नहीं है । वह बोध है, आत्मबोध है, भीतर बैठे देवता को जगाने का उपक्रम है। होश और बोधपूर्वक जीवन जीना ही संबोधि की पहली और अंतिम प्रेरणा है । हर प्राणी आत्म- सम्पदा से युक्त है, फिर भी आत्म-बोध के अभाव में आत्मवान् नहीं है । आखिर मनुष्यता अपने आपको भूली क्यों? पहली बात तो यह है कि जो चीज़ सदा साथ हो, पास हो, व्यक्ति को उसका मूल्य ही नहीं लगता । खोने से ही वस्तु के महत्त्व का बोध होता है। मछली पानी में रहे तो उसे पानी का महत्त्व सामान्य लगता है। बाहर निकलने पर प्राणों के लिए जो तड़फन होती है, उसी से पता लगता है कि पानी का महत्त्व क्या है। मनुष्य जीवनभर आत्मा को भूला रहता है। शरीर से प्राण पखेरू उड़ने को होते हैं और आत्मा बग़ैर जीवन मुर्दा लगता है, तभी आत्मा के महत्त्व और निस्तार के मूल्यों का हमें अहसास होता है । 1 आत्मा के सदा साथ रहने के बावजूद, मनुष्य अपने विकृत चित्त के मायाजाल में ऐसा फँसा हुआ रहता है कि आत्म-सुख की उसे स्मृति ही नहीं आती । विकारों की आपूर्ति करके ही वह स्वयं को संतुष्ट - परितृप्त पाता है । आत्म-सुख इन्द्रिय- सुख नहीं, अतीन्द्रिय सुख है। शरीर और मन के संवेगों और उद्वेगों के तिरोहित होने पर ही आत्मिक मार्ग के दरवाजे खुलते हैं । देह - सुख के भूल-भुलावे में ही व्यक्ति स्वयं को भूल बैठा है और भटक रहा है। बोध के अभाव में ऐसा ही होता है। पत्थर पूजा जाता है, पुरुष 82 - For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुत्कारा जाता है। एक ओर फूल चढ़ाए जाते हैं दूसरी ओर काँटे गड़ाए जाते हैं । सभाओं में अहिंसा और शांति के कपोत उड़ाए जाते हैं, पर मंचों की ओट में शस्त्र-अस्त्रों के कारखाने चलाए जाते हैं। ज्ञान की बातें महज उपदेश बन जाती हैं और उपदेश मानो औरों को ही देने के लिए होते हैं। अधिकारों के नाम पर न जाने कैसे-कैसे प्रपंच और महाभारत रचे जाते हैं। स्वयं का बोध होने पर ही वास्तविकता के प्रति वफ़ादारी आती है। फिर केवल पुरुष ही नहीं पूजा जाता बल्कि पत्थर में भी परमात्मा का रूप देख लिया जाता है । फूलों के बदले में तो फूल दिये ही जाते हैं, पर ज्ञानी व्यक्ति तो काँटों के बदले में भी फूल लौटाता है। फिर ज्ञान बखानने के लिए नहीं, जीने के लिए होता है। अन्तर-बोध हो जाए तो अपनों में और औरों में कोई फ़र्क ही नहीं लगेगा। फिर तो शहरों की भीड़ में भी एकत्व का आनन्द होगा और जंगल की नीरवता में भी शून्य का संगीत सुनाई देगा। मैंने तो धर्म का यही रूप जिया है कि अपने प्रति ईमानदार रहो, अवचेतन के प्रति जागरूक रहो, सबकी सेवा करो, सबसे प्यार करो, सबमें घुलमिल जाओ और हर ठौर परमात्मा का आनन्द लो। ___ आत्मबोध की आवश्यकता इसलिए है ताकि व्यक्ति स्वयं के प्रति भी श्रद्धान्वित हो और औरों की आत्म-अपेक्षाओं को भी समझ सके, रोग, कषाय और विकार को शरीर तथा मन का स्वभाव मानकर अपनी अन्तर-स्थिति को बरकरार रख सके। हमें आत्म-बोध और विश्व-प्रेम के साथ धरती पर जीना आना चाहिए। साधना द्वारा पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त करना अथवा आकाश में उड़ने की शक्ति अर्जित करना साधना का आध्यात्मिक रूप नहीं है। पानी में तैरना या आकाश में उड़ना तो मनुष्य का मत्स्य-जन्म है, पक्षी-जन्म है। मनुष्य की सार्थकता तो इसी में है कि वह सच्चा मनुष्य बनकर मनुष्य के साथ 83 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी सके। अपने आत्म-ज्ञान के बलबूते धरती पर चलने का आत्मबल बटोर सके। औरों पर तो हमें प्रेम के मोती लुटाने ही हैं, पर सबसे पहले हमें आत्म-सुधार पर ध्यान देना चाहिए। मनुष्य के पास सृजनात्मक शक्तियों की पूरी संभावना है। हम अपनी स्वार्थी और विकृत प्रकृति को बदलें, साथ ही अपने आत्म-विश्वास को उपलब्ध कर स्वयं में नई शक्तियों एवं संभावनाओं को भी जन्म दें। हर रोज कम-से-कम सुबह-साँझ तो अपने भीतर का निरीक्षण कर लें, अपनी कमजोरियों को दूर कर लें। स्वयं तो परम शान्ति में जियें ही, औरों को भी अपनी ओर से सौरभ प्रदान करें। हमें सबके लिए भी जीना आना चाहिए। व्यक्तिगत अभ्युदय के साथ समष्टि का अंग बनकर जीना चाहिए। केवल काम और अर्थ ही हमारा पुरुषार्थ न हो, धर्म और मोक्ष भी हमारा पुरुषार्थ और लक्ष्य होने चाहिए। इस पुरुषार्थ के लिए ही आश्रम की व्यवस्था की गई है। आश्रम का अर्थ मठ या मठाधीश होना नहीं है। आत्मोदय के साथ सर्वोदय के विचार व भाव ही आश्रम-व्यवस्था की आधारशिला है। ब्रह्मचर्याश्रम पहलवानी के लिए नहीं, वरन् निर्मल चित्त से सेवा, विनय और ज्ञानार्जन के लिए है। गृहस्थाश्रम भोगाश्रम नहीं, बल्कि अर्थ और काम द्वारा सांसारिक धर्मों को निभाते हुए, एक से अनेक में बढ़ते हुए जन-सेवा तथा समाज-सेवा करना है। वानप्रस्थाश्रम वन की ओर पलायन नहीं, वरन् पारिवारिक सीमा से बाहर आकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को आत्मसात् करना है । संन्यास मात्र नाम-वेश बदलना नहीं है। यह तो शांति, सहिष्णुता, पवित्रता और आत्म-मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना है। 84 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम स्वयं को पाखण्ड के बोझ से मुक्त करें और बोधपूर्वक स्वपर सुखाय जीवन-मूल्यों पर अपने क़दम बढ़ाएँ। गृहस्थ और संन्यास की दूरियाँ मिटाते हुए हर व्यक्ति गृहस्थ-संत होने का प्रयास करे, जल में रहकर भी कमलवत् निर्लिप्त। वनवास में राम-जैसा जीवन व्यतीत करने की बजाय महलों में भी भरत-जैसा जीवन जीना अधिक श्रेष्ठ है । यह घर में रहते हुए भी संत-जीवन जीने जैसा हुआ। ___ हम जितना गति पर ध्यान दें, उतना ही स्थिति पर भी दें। पचास की उम्र तक गति पर बल दें तो शेष ढलती उम्र में स्थिति पर । बेहतर तो होगा कि हर दिन गति और स्थिति पर ध्यान दें। दिन में गति और साँझ ढलते ही स्थिति। हम श्रम और समाज से विमुख न हों। हम योगनिष्ठ रहें। आत्मा की गहराई में डूबे रहें, पर समाज से सम्पर्क बनाए रखें। कर्मयोग चाहे जितना करें पर मूल स्रोत के साथ संबंध बनाए रखें। ___ हम थोड़ी देर अपने काम से, कल्पना से, देह से, समाज से, चित्त और उसके संस्कारों से अलग होने का अभ्यास करें। इस तरीके से हम वहाँ पहुँच सकते हैं जो मूल स्रोत हैं । जहाँ देह नहीं, दुनिया नहीं, चित्त और उसकी उठापटक नहीं, वहीं मौलिक शान्ति और आनन्द है। ज्ञानी उसे 'सत् चित् आनन्द' की संज्ञा देते हैं। चित्त के संस्कार और शोरगुल के शान्त होने पर होने वाली अनुभूति ही शान्ति है और उस शान्त मनःस्थिति में भीतर जो प्रमोद, जो अहोभाव/अहोनृत्य उमड़ता है, उसी का नाम आनन्द है। हम स्वयं की आत्म-स्मृति बनाए रखें और आत्मस्थिति के लिए निरन्तर सजग और प्रयत्नशील रहें। वही गति प्रगति है जो हमारी | 85 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मस्थिति को खण्डित न होने दे। कर्त्तव्य-कर्मों का पालन करते हुए आत्मस्थित रहना - संसार में आध्यात्मिक जीवन जीने का यही कल्याण-मंत्र है। 000 86 For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-शुद्धि के तीन चरण मनुष्य की समस्त उज्ज्वल सम्भावनाएँ जीवन से जुड़ी हैं। जिसका जीवन के प्रति सम्मान और अहोभाव है, वह हर पल, हर घड़ी अपने-आप में परमात्म-भाव को जीता है, परमात्मा के प्रसाद का अमृतपान करता है। जीवन का सम्मान और छोटे-बड़े हर प्राणी में प्रभु की मूरत स्वीकार करना, जहाँ प्रेम और अहिंसा का स्वस्थ आचरण है, वहीं जीवन और जगत् को माधुर्य और आनन्द से सराबोर कर लेना है। मनुष्य की आत्म-निर्मलता के लिए वेश अथवा स्थान का परिवर्तन उतना महत्त्व नहीं रखता जितना कि मन का परिवर्तन महत्त्व रखता है। कोरे कपड़ों को रंग लेने से क्या होगा अगर अन्तरमन अछूता रह जाए। हम जीवन को संसार और संन्यास में न बाँटें। हर संसारी संन्यासी नहीं हो सकता। संत तो अरिहंत का प्रथम रूप है। भले ही हम संत न हो सकें, पर शांत तो हो ही सकते हैं। साधु-मुनि 87 For Personal & Private Use Only www.jaihelibrary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का बाना न पहन सकें, पर हृदय को तो साधु बनाया ही जा सकता है। मैं तो चाहता हूँ कि हर संसारी अपने-आप में साधु हो, हृदय से साधु, स्वभाव से साधु! साधुता और सज्जनता की रोशनी उसके आचारव्यवहार में झलके। हर कोई पूरी तरह स्वस्थ हो, निर्व्यसन हो, माधुर्य और आनन्द से सराबोर ! गृहस्थ-संत होना ही मानवमात्र का उद्देश्य हो। बुराइयों और अंधविश्वासों का त्याग करते हुए सत्य और निष्ठाशील जीवन जीना ही सच्ची साधुता है। दीक्षा वास्तव में जीवन का उज्ज्वल रूपान्तरण है। हममें जो गलत आदतें पड़ गई हैं, कुसंस्कार आ चुके हैं, उन्हें छोड़कर सभ्य, संस्कारशील और पवित्र जीवन जीना ही हमारा प्रथम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ होना चाहिए।व्यवसाय का कर्मयोग होना चाहिए, विवाह का गृहस्थाश्रम निभाया जाना चाहिए। सुख-सुविधाएँ जीवन-यापन के लिए स्वीकार्य हैं, परंतु हमें ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए जो हमारे दामन में दाग लगाए। ऐसे कार्यों को करने से बचें जिनसे हमें नीचा देखना पड़े। जीवन निरन्तर संघर्ष से भरा हुआ है। यदि हम अपने बोध, विवेक और ईमान को दरकिनार कर बैठेंगे तो जीवन को जीना हमारे लिए इतना दुश्वार हो जाएगा कि हम जीने के नाम पर या तो लाश को कंधे पर ढोते फिरेंगे या फिर जीवन को नरक बना डालेंगे। तब आत्महत्या हमें जीवन-मुक्ति का एकमात्र उपाय नज़र आएगा। मेरे समझे, हमारे समक्ष दो मूल्य हैं - पहला तो गति और दूसरा है स्थिति। हमें पचास की आयु तक गति-प्रगति पर ध्यान देना चाहिए जबकि शेष जीवन को स्थिति पर केन्द्रित करना चाहिए।गति विकास 88 For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विस्तार के लिए है, स्थिति आत्म- लीनता और परमात्म-स्मृति के लिए है। सिर पर आया सफेद बाल हमें अपने बुढ़ापे और मृत्यु के इशारे करता है । मृत्यु आए, उससे पहले निर्वाण हो जाए, तो इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा ! एक युवा सौदागर माल से भरी अपनी गाड़ियों को नदी के किनारे खड़ी करके स्नान करने लगा। स्नान करते हुए वह विचार कर रहा था कि इन गाड़ियों का माल बेचूँगा उससे मुझे दुगुना लाभ होगा। उससे फिर माल खरीदूँगा, उससे फिर मुझे चौगुना लाभ होगा। इस तरह मेरे पास समृद्धि बढ़ती जाएगी। मैं एक राजकुमारी से विवाह करूँगा । उसी समय नदी के दूसरे छोर पर बैठे एक त्रिकालदर्शी संत युवक के विचारों को पढ़ते हैं। वे अपने शिष्य से कहते हैं- ज़रा उस युवक को सावधान करो, वह भविष्य के इन्द्रधनुष रच रहा है। जबकि मात्र सात दिन बाद उसकी मृत्यु हो जाने वाली है 1 युवक अपनी मृत्यु के समाचार से मूर्च्छित हो जाता है। संत उससे कहते हैं - विचलित मत होओ, मृत्यु केवल सपनों की होती है, सत्य की नहीं। जीवन को धन्य करने के लिए सात दिन पर्याप्त हैं। युवक साधनाशील हो गया। मृत्यु सातवें दिन आई, पर वह छठे दिन ही मुक्त हो गया । सौभाग्य! मृत्यु से पहले निर्वाण हो गया । यदि हम गति और स्थिति को सदा अपना सकें तो और अच्छा ! उम्र का कोई भरोसा नहीं है। पचास की इंतज़ारी कौन करे ? हर रोज़ गति होनी चाहिए और हर रोज़ स्थिति भी । गति हो सम्यक् आजीविका के लिए, स्थिति हो आत्म-शांति और आत्म- प्रमुदितता के लिए। हमें अपनी आत्मशांति के लिए इतना पुख्ता बंदोबस्त कर लेना चाहिए कि हमारे मरने For Personal & Private Use Only | 89 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90/ For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के बाद हमारी आत्म-शांति के लिए किसी और को पूजा-पाठ करवाने की ज़रूरत न पड़े। आत्म-शांति, आत्म-शुद्धि और आत्म- मुक्ति अध्यात्म के तीन लक्ष्य हैं, तीन परिणाम हैं। आत्म-शांति आपका निर्णय है, आत्मशुद्धि आपका प्रयास और पुरुषार्थ है तथा आत्म- मुक्ति शांति और शुद्धि का मंगल परिणाम है। I आत्म-शांति चाहिए तो शांत रहिये। जो शांति चाहते हैं उन्हें शांत रहने की आदत डालनी होगी। हमें अपने दिमाग में सदा शांति का चैनल चलाना चाहिए। आखिर हम जीवन में जिस चीज़ को महत्त्व देंगे हमारे जीवन में वही चीज़ तो चरितार्थ होगी। हम व्यर्थ के ऊलजुलूल विचारों में न उलझें । चिंता को चिता के समान समझें और तनाव को आत्मा का बोझ । क्रोध और प्रतिक्रियाओं के तनाव से बचें। यदि हम चिंता और क्रोध के बार-बार प्रभाव में आते जाएंगे तो हमारे मन में निरंतर आर्त-ध्यान और रौद्र-ध्यान चलता रहेगा। ये दोनों ही अशुभ ध्यान हैं, हमारे मन में कलेश - संक्लेश पैदा करने वाले हैं । भीतर की शांति और शुद्धि के लिए चिंता और क्रोध से बचना, उस पर अंकुश रखना व्यक्ति की पहली आत्म-विजय है। आपका विवेकपूर्ण निर्णय आपके लिए शांति का द्वार खोलेगा । हम आत्म-शुद्धि पर सर्वाधिक बल दें । आत्म-शुद्धि के तीन चरण हैं - दर्शन-शुद्धि, विचार-शुद्धि और आचार-शुद्धि । दर्शन, विचार और आचार जीवन के ये तीन आधार-स्तम्भ हैं । इनकी शुद्धि जीवन की शुद्धि है । दर्शन-शुद्धि का संबंध है अन्तरदृष्टि से, विचार-शुद्धि का संबंध है अन्तरमन से और आचार - शुद्धि का संबंध है व्यवहार और क्रिया | 91 - For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाप से। भीतर को शुद्ध करके ही व्यवहार को शुद्ध किया जा सकता है। व्यक्ति की दृष्टि और विचार ही हर आचार-व्यवहार, आदत-चरित्र का आधार होते हैं। हमारी दृष्टि हमारे विचारों को प्रभावित करती है, विचार शब्दों को, शब्द क्रियाओं को, क्रिया आदतों को और आदतें चरित्र को प्रभावित करती हैं। एक गंदी सोच गंदे विचार गंदे चरित्र का कारण बनती है, एक बेहतर सोच बेहतर चरित्र का। अपनी दृष्टि और विचारों को बेहतर बनाना जीवन को व्यवस्थित करने का बुनियादी स्वरूप है। दृष्टि, विचार और आचार को शुद्ध-बेहतर बनाना एक ऐसी चुनौती है, जिसे जो भी स्वीकार करेगा, जीवन के श्रेष्ठ उच्चतम शिखरों का स्वामी बनेगा। दर्शन-शुद्धि, विचार-शुद्धि और आचार-शुद्धि - हम तीनों को क्रमशः लें। दर्शन-शुद्धि __ दृष्टि की अपनी अहमियत है। दृष्टि ही वह आधारशिला है, जिस पर जीवन-मूल्यों के ज्योति-कलश टिकते हैं । आँखें दो होती हैं, पर दोनों की रोशनी तो एक ही होती है। हमारे पास अपनी कोई दृष्टि नहीं है। हम उधार दृष्टियों से काम चला रहे हैं। हमारी दृष्टि में मिलावटें हो चुकी हैं। बगैर दृष्टि की पवित्रता के न विचार सात्त्विक रह सकते हैं और न ही तन, मन और आचरण को निर्मल रखा जा सकता है। अन्तर-दृष्टिपूर्वक जीना ही जीवन का सत्य सहज स्वरूप है। दर्शन-शुद्धि के लिए संकल्प लें - 1.मैं देह नहीं, आत्मा हूँ। देह में रहकर भी देह से भिन्न हूँ। 92 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. जन्म-जन्मान्तर की तृष्णा और कलुषित कर्म - संस्कारों के कारण ही मैं दुःखी रहा हूँ। अब मैं अपनी आत्म-शुद्धि के लिए अपने हर कर्म और विकार के उदय के प्रति सावधान रहूँगा। मैं अपने मनोविकारों और कषायों का नियंत्रण तथा शोधन करूँगा । 3. हर व्यक्ति और हर परिस्थिति के प्रति अपनी दृष्टि को सदा उन्नत और सकारात्मक रखूँगा । ग़लत वातावरण में भी अपनी निष्ठा और विश्वास को विचलित नहीं होने दूँगा । 4. देह का अभिमान न रखते हुए मैं इसे परमात्मा का मंदिर मानूँगा और सबके प्रति समदृष्टि रखते हुए वीतद्वेष-भाव से जीऊँगा । 5. गुणीजनों और उपकारी महानुभावों का सम्मान करते हुए मैं मानवता को अपनी सेवाएँ समर्पित करूँगा । विचार-शुद्धि विचार शरीर और चेतना के बीच का सेतु है, जीवन और जगत् के बीच का संबंध-योजक है। व्यक्ति के जैसे विचार होते हैं, व्यक्तित्व वैसा ही निर्मित होता जाता है । हमारे विचार से हमारा व्यक्तित्व प्रभावित आन्दोलित होता ही है । वास्तव में हमारे विचार ऐसे हों जिनमें सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की सुवास हो । मनुष्य के स्वार्थी विचारों ने उसकी मानसिकता को विकृत और लालची बनाया है। रंग-रूप, वेश- जाति, पैसा - प्रतिष्ठा, भोगपरिभोग मनुष्य के विचारों में इस कदर अपनी पैठ बना चुके हैं कि मनुष्य अपने आपको, अपने मूल्यों को भुला ही बैठा है । वह गिरावट की हर सीमा को लाँघ चुका है। ईर्ष्या, स्वार्थ, चिंता, चिड़चिड़ापन, क्रोध, हिंसा - प्रतिहिंसा जैसे दूषित तत्त्व हमारी वैचारिकता को गिरवी For Personal & Private Use Only 93 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रख बैठे हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो सबसे ज़्यादा ज़रूरत मनुष्य के वैचारिक कायाकल्प की है। ___ यदि हम अपनी सोच की धारा को बदलेंगे तो निश्चय ही जीवन का स्तर ऊँचा हो सकता है। सकारात्मक सोच जीवन की हर सफलता का आधार है। आप एकमात्र अपनी सोच और विचार को बेहतर बनाइये, आपका जीवन स्वतः श्रेष्ठ और सफल हो जाएगा। विचारों के परिवर्तन के लिए हमें सम्यक् ज्ञान के प्रकाश में जीना चाहिए। उन लोगों के साथ उठना-बैठना चाहिए, जिन्हें हम सज्जन-पुरुष कहते हैं। रात को सोने से पहले हर रोज़ शांत चित्त से अपने बारे में, अपने आचार-विचार के बारे में चिन्तन-मनन करना चाहिए और ज्ञात दुर्गुणों से स्वयं को दूर (प्रतिक्रमण) करते हुए जीवन में अच्छाइयों की रोशनी प्रकट करनी चाहिए। हमें हर रोज़ रात को सोने से पहले अपने दिनभर के क्रियाकलापों पर गौर करते हुए यह कहते हुए ग़लतियों के लिए प्रतिक्रमण और प्रायश्चित कर लेना चाहिए - हे प्रभु! मेरे द्वारा दिनभर में किसी भी प्रकार का ग़लत चिंतन हुआ हो, ग़लत वचन निकला हो, ग़लत कर्म या व्यवहार हुआ हो, उसके लिए मैं सरल हृदय से क्षमा प्रार्थना करता हूँ। विचार-शुद्धि के लिए हम संकल्प लें - 1. मैं अपना मालिक खुद हूँ। अपने-आपको औरों की गुलामी से बचाते हुए मैं आत्म-स्वतंत्रता और आत्म-विकास में विश्वास रलूँगा। 2. मैं किसी का अहित करना तो दूर, अहित करने का विचार भी नहीं रखूगा। 94 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. मैं अपने विचारों को आत्म-भावना से भावित रखते हुए तनमन में परमात्मा के प्रसाद और पुलक का अनुभव करूँगा। 4. मैं विचारों में किसी तरह का दुराग्रह न रखते हुए सत्य का समर्थन और ग्रहण करूँगा। 5. मैं प्रतिदिन स्वाध्याय का संकल्प लेते हुए तत्त्व-चिन्तन करूँगा। विचारों में वे दीये ज्योतिर्मय करूँगा जो स्व-पर कल्याणकर हों, सत्य-शिव-सौन्दर्य के अनुरूप हों। आचार-शुद्धि हमारे आचार-व्यवहार और बोल-बरताव ही हमारे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति बनते हैं । मनुष्य अपने आचरण के कारण साधु-पुरुष भी कहलाता है और शैतान भी। पवित्र आचरण साधुता है, अपवित्र आचरण दुश्चरित्रता है। निर्मल और पवित्र आचार-व्यवहार मनुष्य को देवत्व प्रदान करता है। ___ बात-बेबात में क्रोध कर बैठना, सनक चढ़ना, औरों को अपने से हीन मानना, उपेक्षा करना, गाली-गलौच करना हमारे व्यवहारगत दोष हैं। धूम्रपान या मद्यपान करना, ग़लत नज़र डालना, भीतर-बाहर का भेद रखना, छल-प्रपंच करना आचारगत दोष हैं । व्यक्ति तो क्या, समाज और देश तथा उसका नेतृत्व करने वाले भी इतने स्वार्थी और भ्रष्ट होने लगे हैं कि मानो कुए में ही भांग पड़ी हो। सभी सुधरें, अच्छी बात है। कम-से-कम हम तो ऊँचे उठे, देवत्व को जियें। आचार-शुद्धि के लिए विनम्रता और सहिष्णुता अनिवार्य चरण हैं । हम सबसे मिलें, चाहे स्त्री हो या पुरुष, सबके प्रति सम्मानपूर्ण मैत्री भरा व्यवहार रखें। किसी को कुछ भी बोलें या लिखें, पर उसमें 95 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना माधुर्य हो कि हमारे दो वचन भी दूसरों के लिए फूलों का उपहार बन जाए। हमें जहाँ अपने आत्म-सम्मान को गिरने नहीं देना चाहिए, वहीं दूसरों की अदब-इज़्ज़त का भी ध्यान रखना चाहिए। आचार-शुद्धि के लिए संकल्प लें - 1. मैं किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थ का सेवन नहीं करूँगा। अपने खानपान की शुद्धता और सात्विकता के प्रति सजग रहूँगा। 2. न मैं किसी तरह का ग़लत काम करूँगा और न ही किसी और को ग़लत राह पर चलने को उत्साहित करूँगा। ___3. मैं अपनी आजीविका की शुद्धता को बनाए रखुंगा। मैं झूठफरेब और मिलावट न करने की प्रतिज्ञा करते हुए सच्चाई और ईमानदारी से वांछित साधनों का अर्जन करूँगा। ___4. मैं घर में ऐसा माहौल बनाए रखूगा कि घर भी स्वर्ग जैसा सुन्दर-स्वच्छ हो। फिर चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी 'त्याग' क्यों न करना पड़े। ___5. मैं औरों के सुख-दुःख में काम आऊँगा। नेकी करूँगा और भूल जाऊँगा। ___ आत्म-शुद्धि के ये चरण मानव-मुक्ति के लिए हैं, मनुष्य के देवता बनने के लिए हैं। हमारी दृष्टि, हमारे आचार-विचार सम्यक् और पवित्र हों तो जीवन मानवीय भगीरथ द्वारा धरती पर लायी गई स्वर्गागन्तुक गंगा साबित हो सकता है। सुख-शांति और प्रेम का सागर, रत्नाकर! 000 961 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -मानव-मुक्ति की पहल ReasoeRaniniwriNewwesomwarasweewaneerwecansravsence MeamsansaceOUNAWWANAPAMARHANPROPENIOR RAHANANEPARSATARTHAMAWwwsHWORSHINTAMyanvi जितना बड़ा संसार हमारी आँखों के सामने फैला हुआ है, उससे कहीं ज़्यादा हमारे भीतर बसा है। भीतर के संसार को पहचानने और उससे मुक्त होने के लिए ही ध्यान का मार्ग है। बगैर ध्यानयोग के हमारा अन्तर्-विश्व अज्ञात बना रहता है। ध्यानयोग से जहाँ स्वास्थ्य, ताज़गी और स्फूर्ति मिलती है, वहीं अन्तर्द्वन्द्व से मुक्ति और चेतनागत विकास भी होता है। मानसिक शांति और आध्यात्मिक शक्ति के लिए ध्यान दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। . ___ ध्यान हमें हर चीज़ को अन्तर्दृष्टि से देखने की क्षमता प्रदान करता है। मुक्ति हर कोई चाहता है, पर मुक्ति का मार्ग किसी निश्चित राह से नहीं गुज़रता। उसे खोजना पड़ता है। यदि हर चीज़ को नये सिरे से देखने की दृष्टि उपलब्ध हो जाए तो मुक्ति के भी नये-नये द्वारदरवाजे खुल सकते हैं। नई संभावनाओं का चमत्कार घटित हो सकता 97 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान शांत मनस् की साधना है। गूढ़मन की गहराई में उतरने पर ही चेतनागत समस्त संभावनाओं से साक्षात्कार होता है, आनन्द और परम-धन्यता का भाव घटित होता है। गहन मौन में स्वयं से संवाद होता है । यह अनुभव-दशा है, अनुभव से भी बढ़कर बोध-दशा है। जिसे हम आत्म-दर्शन कहते हैं, वह वास्तव में स्वयं का दर्शन है, सत्य का दर्शन है। ध्यान, अपने बारे में सच्चाई की खोज है, अस्तित्व के गर्भ में प्रवेश है। अपने आपको शरीरगत एवं इन्द्रियगत अनुभूति तथा संवेदना से ऊपर उठाते हुए शांत चित्त से अपने भीतर बैठे शाश्वत परम सत्य को जीना ही ध्यान है, संबोधि है। मनुष्य सरल, प्रसन्न और निर्विकार जीवन जिए, ध्यान-भावना के पीछे यही उद्देश्य है। हम सुबह-शाम ध्यान करें। प्राथमिक दौर में यह ज़रूरी है, पर हमें तो हर काम ध्यानपूर्वक करना चाहिए। जब भी फुरसत मिले, हमें भीतर गोता लगा लेना चाहिए कि इस समय हमारे अन्तरमन में क्या हो रहा है, मन कैसे माया-महल रच रहा है। अपना निरीक्षण तो होना ही चाहिए, ताकि अंधकार को बाहर निकाला जा सके, प्रकाश की पहल हो सके।आखिर ध्यान की कोई भी विधि क्यों न हो, सबका सार एक ही है - बाहर से भीतर मुड़ो। भीतर का कषाय-कल्मष मिटाओ और परम शांति में जिओ। यद्यपि ध्यानपूर्वक जीने के पीछे आत्म-निष्ठा ही मुख्य है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम समाज से कट जाएँ अथवा श्रम से विमुख हो जाएँ। हमें अन्तरतम की गहराई में भी डूबे रहना चाहिए और समाज में भी सम्पर्क बनाये रखना चाहिए। समाज में जाएँ सेवा और प्रेम के लिए; ध्यान करें अन्तस्तल की गहराई में डूबने के लिए। मूल स्रोत के साथ हमारा संबंध नहीं टूटना चाहिए। 981 For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर व्यक्ति अपने मूल स्रोत तक पहुँच सकता है। हम अपनी देह से, स्मृतियों से, संबंधों से, मन के विकल्पों से, चित्त की अनर्गलता से स्वयं को अलग हटाकर देखें। धीरे-धीरे गहराई आ जाएगी और अन्ततः अन्तस्-आकाश में बैठी मौन सत्ता के साथ हमारे संवाद और साक्षात्कार होने में कहीं दुविधा नहीं रहेगी। जीवन दिव्य और विमुग्ध हो, इसके लिए हमें निरन्तर सावचेत रहना चाहिए। दिव्य जीवन जीने के लिए हमें उन कामों को करने से परहेज रखना चाहिए जिनसे हमारी मानसिक शांति भंग हो । मन ही बिगड़ गया तो सब कुछ बिगड़ा ही समझो। मन विकृत हो गया तो मानो इन्द्रियाँ भी विकृत हो गयीं। किसी भी काम का अच्छा या बुरा होना, बहुत कुछ तो मन पर ही निर्भर करता है। शांत और सधे हुए मन से जिओ तो जीवन में चूक की कहीं कोई संभावना नहीं है। __ हमें जब-तब अपने मन को देखते रहना चाहिए। अमन के फूल खिलते रहने चाहिए। भीतर कोई खाई बने या चक्रवात उठे, उससे पहले ही हमें उस पर ध्यान देकर उसका नियंत्रण कर लेना चाहिए। आत्म-दर्शन अथवा आत्म-मुक्ति के लिए मन, चित्त तथा बुद्धि का निर्मलीकरण प्राथमिक अनिवार्यता है। जैसे स्नान किये बगैर मंदिर जाना हम अच्छा नहीं मानते, वैसे ही अन्तरमन के मैल को धोये बगैर भीतर बैठे देवता तक कैसे पहुँच सकेंगे? वस्तुतः हमें अपने मन का आसन बदलना चाहिए। मन की बैठक साफ-सुथरी हो, यह ज़रूरी है। दर्शन-शुद्धि, विचार-शुद्धि और आचार-शुद्धि मन का परिमार्जन करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । हम शांत मन से किसी भी विषय-वस्तु का चिंतन करें। बोलें तब भी बड़ी शांति से, बड़ी मिठास से। जीभ में खराश न हो, आँखें लाल न हों। हमारी वाणी, हमारा व्यवहार, हर काम नपा-तुला होना | 99 For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। कम क्यों तौलें ! पूरा तौलें, मीठा बोलें, न ज़रूरत से ज़्यादा खाएँ और न ही ज़रूरत से ज्यादा सोएँ । जीभ और जाँघ की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश रखें। किसी की निंदा या स्तुति में रस न लें। अगर हम अपने आप पर अपना पहरा बैठाये रखेंगे तो आँखें बुरा नहीं देखेंगी । कान बेकार की बातों में रस नहीं लेंगे। जुबान ग़लत-सलत नहीं बोलेगी । मन अनर्गल नहीं सोचेगा । स्वयं को बुराइयों में जाने से रोकना और अच्छाइयों में लगाना ही जीवन-चक्र में धर्म-चक्र का प्रवर्तन है । धरती पर किसी चीज़ की कमी नहीं है । अगर कमी है तो हमारी अपनी ही दृष्टि में है। यदि हम यह मान लें कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है अथवा जो हो रहा है, वह मेरी नियति और कर्मों की परिणति है तो हम स्वयं को मानसिक ऊहापोह से बचा लेंगे। अब जब हम मनुष्य हैं तो स्वाभाविक है कि हमें क्रोध आएगा, काम-भाव जगेंगे। पर, अगर हम अपने आपको सुख-शांति का स्वामी बनाना चाहते हैं तो वैर और उपेक्षा की बजाय क्षमा और भगवत् प्रेम को बढ़ाएँ । हर एक को परमात्मा की मूरत मानें। भले लोगों से मैत्री हो, दीन दुखियों पर करुणा हो । पाप से बचें और स्वयं को सदाबहार प्रसन्न रखें । , ये सब वे साधन हैं जिनसे हमारे चित्त, मन और बुद्धि की शुद्धि होगी। अगर हम जीवन को परमात्मा का प्रसाद और अपने कार्यकलापों को उसकी सोच मान लें तो कर्तृत्व भाव से जुड़ी हुई अहंकार की ग्रंथियाँ शिथिल हो सकती हैं। जिसके लिए काम करना व्यायाम है और उत्पादन करना जगत- पिता की सेवा, उसके लिए जीवन और प्रवृत्ति के बीच विरोधाभास ही कहाँ है ! यह गौरतलब है कि हम मन के निर्देशानुसार न चलें। हमारा हर 100 | For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम बुद्धि के निर्देशानुसार होना चाहिए। मन का तो हमें साक्षी होना है और बुद्धि का जीवन-संचालन के लिए उपयोग करना है । यदि इंसान को साक्षी होने का गुर मिल जाए, साक्षित्व की चाबी हाथ लग जाए तो भीतर-ही-भीतर चलती रहने वाली अनर्गल अन्तर्वार्ताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। तनाव और चिंता को जर्जर किया जा सकता है। हम अपने मन को ऊर्जा देना कम करें ताकि बुद्धि की शक्ति बढ़े और इस तरह हमारा जीवन विज्ञानमय हो जाए। मन पर बुद्धि का अनुशासन होना ही ध्यानयोग की सफलता है । ध्यान साँसों या संवेदनाओं के अनुभव की कोई विधि मात्र नहीं है । विधियाँ तो प्रवेश के लिए होती हैं। वास्तव में जब विधि छूट जाती है, हम अपने तन के तल से ऊपर उठ जाते हैं, मन की क्रियाएँ शून्यशांत हो जाती हैं, तभी अन्तस्- आकाश में दृष्टा साकार होता है, ध्यान सम्पूर्ण होता है। ध्यान तो अपने में ही अपना विश्राम है । उस तत्त्व की पहचान है जिसकी मुक्ति की हमारी अभीप्सा है। ध्यान तो अन्तस् का स्पर्श है, मौन में बैठक है, आकाश भर आह्लाद है। न अतीत की स्मृतियों का बोझ और न ही भविष्य की कल्पनाओं का शोर । जो है, उसी को आनन्दपूर्वक जीना है । चित्त का वर्तमान क्षण में स्थिर होना ध्यान की पहली और अंतिम प्रेरणा है । संबोधि - ध्यान की चारों विधियाँ एक प्रयोग भर हैं, भीतर के रिक्त आकाश में प्रवेश पाने के लिए। मानव-मन में मुक्ति की चेतना जग जाए, एक बार अन्तरबोध हो जाए तो फिर तो सारे मार्ग प्रशस्त हैं । अगर कोई यह सोचे कि दो - पाँच दिन का ध्यान का अभ्यास करके बड़बड़ाते, धमाल मचाते मन को चुप किया जा सकता है, तो यह सम्भव नहीं है। जल्दबाजी न करें। धीरज धरें। वह धीरे-धीरे धीमा पड़ता है । अन्तत: शांत और शून्य भी होता है। परिणाम नहीं, बीज के सिंचन पर ध्यान दें, फल-फूल अनायास खिल आएँगे । For Personal & Private Use Only 101 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय की ओर बढ़ें, हृदय को खोलें। अन्तस्-आकाश को खोज लिया जाए तो आत्म-स्वतंत्रता के पंछी मुक्त विहार कर सकते हैं। तब ऐसे अहोभाव में जीना होता है जिसमें सबको समाविष्ट किया जा सकता है। ___ मृत्यु हमें मिटाए, उससे पहले, हम मृत्यु से जुड़े पहलुओं को मिटा डालें ताकि मृत्यु नहीं, मुक्ति हो । मृत्यु भी निर्वाण का महोत्सव हो। ज्योति का परम ज्योति में विलय हो। तमसो मा ज्योतिर्गमय... असतो मा सद्गमय... मृत्योर्मा अमृतं गमय... हे प्रभु! मैं अन्धा हूँ, दृष्टा बनाओ। भ्रमित हूँ, अमृत बनाओ। बूंद हूँ, सागर बनाओ।मुझे अपनी शांति और मुक्ति की राह दिखाओ। O My God! I am only a drop, make me an ocean. मेरे प्रभु ! मैं तो केवल एक बूंद भर हूँ, सागर बनाओ तो तुम्हारी कृपा! हम ध्यान में उतरें, ध्यान को जीएँ। अस्तित्व हमें सहज ही अपने प्रकाश और पुरस्कारों से भर देगा। ___ हम अपनी शांति, शुद्धि, मुक्ति के लिए पहला तरीका यह अपनाएँ कि हम अपने साथ मौन के अभ्यास को जोड़ें। दिन में दो घण्टे ही सही, हम मौन-भाव को अपने से जोड़ें। उस दौरान न किताब पढ़ें, न अखबार और न ही रेडियो या टेलीविजन का उपयोग करें। मौन यानी वाणी का ही मौन नहीं, इंद्रियों का भी मौन, मन का भी मौन । कुछ दिन तक यह भले ही अटपटा लगे, पर धीरे-धीरे आप पाएँगे कि आपके 102 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीतर वास्तव में मौन साकार होने लगा है। कोशिश करें, महीने में एक दिन पूरे मौन रहें। जैसे शरीर-शुद्धि के लिए महीने में एक उपवास किया जाता है, आप एक दिन पूरा मौन रखें। संभव हो सके तो कभी एक सप्ताह के लिए मौन रखें। धीरे-धीरे आप पाएँगे कि मानसिक द्वन्द्व शांत होना शुरू हो गया है। मन की शांति में आत्मा की शक्ति अधिक महसूस होती है। एक बात और अपनाएँ कि प्रतिदिन सुबह और प्रतिदिन सायं आधा घण्टा ध्यान का अभ्यास करें। ध्यान से मौन, शांति और आत्मजागरूकता का और अधिक विकास तथा विस्तार होगा। ध्यान में करने के नाम पर कुछ न करें। बस, शांत स्थिर हो जाएँ, स्वयं को एकाकी देखें। शरीर, मन और इंद्रियाँ - सबको शांति और मौन की प्रेरणा देते हुए स्वयं को ईश्वरीय भाव में स्थापित करें। सचमुच आपको यह देखकर आश्चर्य होगा कि आपकी शांति और संभावना अनन्त हो चुकी है। ध्यान-विधि के लिए प्रथम चरण : लगभग 10 मिनट तक दीर्घ श्वास का प्राणायाम करें। चित की स्थिरता के लिए साँस के साथ सोहम् का सुमिरन करें। धीरे-धीरे साँस स्वतः छोटी, हल्की और विलीन होती जाएगी। दूसरा चरण : अपने हृदय-कमल में दिव्य शांति और अपनी अन्तरात्मा का ध्यान करें। लगभग 10 मिनट तक ध्यान विधि के दूसरे चरण में डूबे रहें। तीसरा चरण : ललाट प्रदेश पर अपनी आत्म-जाग्रति साधे । यहाँ ध्यान धरने से हमारे दिव्य चक्षु सक्रिय होंगे, बुद्धि एकाग्र और निर्मल होगी। यहाँ हमें दिव्य चमक और दिव्य रंगों की अनुभूति होगी। चतुर्थ चरण : अंत में मस्तष्क के मध्य ऊपरी केन्द्र अर्थात् ब्रह्मरंध्र | 103 For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ध्यानस्थ हों। यहाँ ध्यान धरते हुए हमारा मन सहज शांत, निर्मल और निर्विकल्प हो चुका है। ऐसी स्थिति में हमें ब्रह्माण्ड से विश्व शक्ति प्राप्त होगी जिससे हमारी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ेगी। हम स्वस्थ, सच्चिदानंद और निर्वाण की स्थिति को आत्मसात करेंगे। अंतिम एक कार्य और करें कि प्रतिदिन दो घण्टे का समय ऐसा अवश्य चुनें, उस दौरान जो कुछ भी घटित हो, उसके बारे में कोई प्रतिक्रिया न करें। हम इस अभ्यास को धीरे-धीरे और बढ़ा सकते हैं। एक घण्टे को दो घण्टे में, दो को चार घण्टे में । आप पाएँगे कि धीरेधीरे यही जागरूकता आपके पूरे दिन-सप्ताह-महीने-वर्ष तक विस्तार लेती जा रही है। क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वन्द्व से बचने से जहाँ हम उत्तेजना, क्रोध, तनाव और मानसिक खिंचाव से बचेंगे, वहीं शांति, सरलता, समदर्शिता के जीवनदायी तत्त्व अनायास आत्मसात् हो जाएँगे। असीम शांति में ही असीम मुक्ति समाई है। शुद्धि और सामर्थ्य के पंखों के सहारे ही मुक्ति के आकाश में उड़ान भरना संभव है। आत्मस्मृति की भावदशा के साथ हम अनन्त मुक्ति के पथिक हों। जन्म और मृत्यु दोनों से उपरत होकर बस जिएँ और सहज मुक्त हो जाएँ। 000 104 For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म मनुष्य के लिए जन्मा है, न कि मनुष्य धर्म के लिए / धर्म वही है जिससे इंसानियत का भला हो। धर्म के नाम पर अनेक तरह के तौर-तरीके चलते हैं, पर यदि वे तौर-तरीके हमारे विचार, वाणी और व्यवहार को पॉजिटीव न बना पाएँ तो इसका अर्थ है उस सिस्टम में आवश्यक बदलाव लाया जाए। प्रसिद्ध धर्मगुरु महान राष्ट्र-संत पूज्य श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म की उन बातों पर अपना प्रकाश डाला है जो धर्म के कठिन स्वरूप को सरल बनाता है और व्यक्ति का अनायास ही धर्म में प्रवेश करवाता है। यह छोटी-सी प्यारी पुस्तक हमारे लिए धर्म की टॉर्च का काम करती है। आप इसे मनोयोगपूर्वक पढ़ते जाइए। इस किताब का एक-एक चेप्टर आपके लिए द्वार का काम करेगा और आप अनायास साधारण से असाधारण चेतना के मालिक होते जाएँगे। फिर आपके क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद आज़ाद पंछी की तरह मुक्त हो जाएंगे। COJU U Rs25/ For Personal & Private Use Only