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________________ मन मनुष्य की सबसे चपल - चंचल वस्तु है। यह चेतनागत ऊर्जा की ही एक सशक्त अभिव्यक्ति है । मन बड़ा विचित्र है | स्वर्ग और नरक मन के ही दो पहलू हैं। भौरे की तरह फूलों पर मँडराना उसका धर्म है। इसे दुलत्ती तो तब खानी पड़ती है जब फूल शूल बन जाते हैं। सागर में नहाने का मज़ा तब किरकिरा पड़ जाता है जब उसका खारापन भी मन के हिस्से आता है । मन मनुष्य की मूल बीमारी है । शरीर की स्वस्थता के लिए मन का स्वस्थ होना ज़रूरी है । मन के रोगों और विकारों का उपचार कर दिया जाए तो शरीर के रोग तो सहज दूर हो जाते हैं। बुद्धि भी मन जैसी ही एक सशक्त क्षमता है, पर मन उच्छृंखल होता है, बुद्धि विकासमान होती है। मन कल्पनाशील होता है, बुद्धि ज्ञान और विवेकशील । जीवन में मन की बजाय बुद्धि की प्रधानता होनी चाहिए। प्राण की भूमिका प्राणियों की है, मन की भूमिका मनुष्यों की है, बुद्धि की भूमिका ऋषिपुरुष और विज्ञानियों की है । मन और पार्थिव प्राण के प्रभाव और स्वभाव से मुक्त होने पर ही बोधिलाभ और कैवल्य - लाभ हो सकता है । मन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी अपनी पहुँच है | चेतना मन के ज़रिये कहीं भी अपनी पहुँच बना सकती है। वह हर चीज़, दृश्य या कल्पना को अपने में साकार कर सकती है। मन और बुद्धि वास्तव में मनुष्य की अव्यक्त चेतना के अभिव्यक्त रूप हैं। मन में विकल्प उठते हैं, बुद्धि विचार करती है, हृदय में भाव अवस्थित होते हैं । विकल्प तो चौराहे पर भटकना है। विकल्पों का कोई लक्ष्य नहीं होता । यह तो हवा के झोंके के साथ लहरों की Jain Education International For Personal & Private Use Only 71 www.jainelibrary.org
SR No.003866
Book TitleDharm me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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