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________________ भर? ये वे बिन्दु हैं जिन पर किया गया मनन अनायास हमें अन्तर्मुखी बनाता है। हमारे क़दम आत्मा की ओर, अस्तित्व की ओर बढ़ने लगते हैं। जब जवाब लेते-देते शान्त हो जाएँ तो इसे अपने लिए अमृत वेला मानें । उस शान्त स्थिति में जवाब की बजाय बोध होगा। जिसका बोध हो, वही हैं हम।वही है चेतन, वही है आत्म-अस्तित्व।। __ उसे हम नाम चाहे जो देना चाहें, हमारी मौज। उसे हम जीवन कहें, महाजीवन; आत्मा, परमात्मा या शून्य। शब्द गौण है, बोध महत्त्वपूर्ण है। वह जो भी है, हमारा आत्म-परिचय है, हमारा अस्तित्व-बोध है। आत्म-परिचय यानि स्वयं का परिचय। आत्मा यानि स्वयं की सत्ता। ध्यान के द्वारा अपने में प्रवेश करके ही हम अपने उन कलुषित संस्कारों को, मनोविकारों को बोधपूर्वक काट सकते हैं जिनका हमने न जाने कब से संचय-संग्रह किया है। अन्तस् का स्पर्श किये बगैर तो मनुष्य का मनोमन अन्तर्द्वन्द्व सदा जारी रहेगा - विकार और शरीर-सुख के बीच; जीवन और जगत् के बीच।वह कथनी-करनी के भेद को सदा दोहराएगा। भीतर पाप जारी रहेगा, बाहर पुण्य प्रदर्शित होता रहेगा। सामान्यतः होता भी यही है कि हम लोग भोग और योग दोनों को ही जीवन से जोड़े रखते हैं । योग की बातें हो जाती हैं, अंतरमन में भोग जारी रहता है। ___ हमें अपने आपको समझना होगा। स्वयं के साथ न्याय करना होगा। दोगलापन ठीक नहीं है। अपने आपको ज़्यादा महान् दिखाने की महत्त्वाकांक्षा आदमी को दोगला बनाती है। संसार हो या संन्यास, दोनों ही न तो इसमें बाधक हैं और न ही सहायक। अपने-आपको पहचानना हो तो इसमें दाढ़ी बढ़ाना या 64 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003866
Book TitleDharm me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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