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माथा मुंडवाना, चोटी लटकाना या भभूत चढ़ाना अथवा नाम-वेश बदलना कहाँ आधारभूत बनते हैं? अपनी ओर से पूरी तरह समर्पित और अभीप्सित तैयारी है तो हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, प्रवेश पाया जा सकता है, अपने आपको पहचाना जा सकता है। अपने आपको शिक्षित करने के लिए हमें वर्षों लगाने पड़ते हैं। हर रोज़ घंटों पढ़ना पड़ता है। आत्मज्ञान के लिए तो न तो वर्षों की ज़रूरत है और न ही जन्मों की। केवल थोड़ा-सा अपने में उतरने और स्थितप्रज्ञ होने का अभ्यास करने की ज़रूरत है।
मैंने मुनित्व का वरण किया, लेकिन मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मेरे आत्म-ज्ञान में मेरा यह मुनित्व उतना बड़ा साधन नहीं बना जितना कि अपने आप में, अपने आपके प्रति जगने वाली जिज्ञासा। व्यक्ति ही साधक बनता है और व्यक्ति ही बाधक।साधन सहायता दे सकते हैं, पर पहुँचा नहीं सकते। पहुँचता तो व्यक्ति खुद है। हाँ, व्यक्ति की चित्त-शुद्धि में ये संयम-साधन सहायक अवश्य बनते हैं। मेरे देखे, अपने आपको जाने बिना व्यक्ति स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं हो सकता और स्वयं के प्रति ईमानदार हुए बगैर अपने अहंकार, विकार और कषाय-वृत्तियों से मुक्त नहीं हो सकता। विकार-रहित चित्त का नाम ही निर्वाण है, मानव की मुक्ति है।
स्वयं को जानकर ही संसार की सत्ता को जाना जा सकता है। अहिंसा को जीवन में वास्तविक रूप से चरितार्थ करने के लिए स्वयं को जानना पहली अनिवार्य शर्त है । आत्म-ज्ञान के अभाव में अहिंसा, करुणा और दया आरोपित धर्म कहलाएँगे, नैसर्गिक धर्म नहीं। स्वयं के सुख-दुःख को जानकर ही दूसरों के सुख-दुःख को पहचाना जा सकता है। फिर दूसरों के प्रति हम वही व्यवहार करेंगे जो हम अपने
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