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________________ चाहिए। कम क्यों तौलें ! पूरा तौलें, मीठा बोलें, न ज़रूरत से ज़्यादा खाएँ और न ही ज़रूरत से ज्यादा सोएँ । जीभ और जाँघ की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश रखें। किसी की निंदा या स्तुति में रस न लें। अगर हम अपने आप पर अपना पहरा बैठाये रखेंगे तो आँखें बुरा नहीं देखेंगी । कान बेकार की बातों में रस नहीं लेंगे। जुबान ग़लत-सलत नहीं बोलेगी । मन अनर्गल नहीं सोचेगा । स्वयं को बुराइयों में जाने से रोकना और अच्छाइयों में लगाना ही जीवन-चक्र में धर्म-चक्र का प्रवर्तन है । धरती पर किसी चीज़ की कमी नहीं है । अगर कमी है तो हमारी अपनी ही दृष्टि में है। यदि हम यह मान लें कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है अथवा जो हो रहा है, वह मेरी नियति और कर्मों की परिणति है तो हम स्वयं को मानसिक ऊहापोह से बचा लेंगे। अब जब हम मनुष्य हैं तो स्वाभाविक है कि हमें क्रोध आएगा, काम-भाव जगेंगे। पर, अगर हम अपने आपको सुख-शांति का स्वामी बनाना चाहते हैं तो वैर और उपेक्षा की बजाय क्षमा और भगवत् प्रेम को बढ़ाएँ । हर एक को परमात्मा की मूरत मानें। भले लोगों से मैत्री हो, दीन दुखियों पर करुणा हो । पाप से बचें और स्वयं को सदाबहार प्रसन्न रखें । , ये सब वे साधन हैं जिनसे हमारे चित्त, मन और बुद्धि की शुद्धि होगी। अगर हम जीवन को परमात्मा का प्रसाद और अपने कार्यकलापों को उसकी सोच मान लें तो कर्तृत्व भाव से जुड़ी हुई अहंकार की ग्रंथियाँ शिथिल हो सकती हैं। जिसके लिए काम करना व्यायाम है और उत्पादन करना जगत- पिता की सेवा, उसके लिए जीवन और प्रवृत्ति के बीच विरोधाभास ही कहाँ है ! यह गौरतलब है कि हम मन के निर्देशानुसार न चलें। हमारा हर 100 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003866
Book TitleDharm me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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