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________________ लिए उसके अपने मापदण्ड हैं। परमात्मा तो प्रकृति पर भी सदा कृपापूर्ण ही रहता है। प्रकृति के हर अंश में परमात्मा का नूर है। ज़रा, मुस्कुराकर नज़र उठाएँ, डाल-डाल, पात-पात उसी की आभा झलकती दिखाई देगी। ___ यह गौरतलब है कि परमात्मा की दिव्य सत्ता के अंश हम सब में हैं,सारे अस्तित्व में हैं, पर हम परमात्म-रूप नहीं हैं । हाँ, हम वैसा हो सकते हैं। अमन की दिशा उपलब्ध हो जाए, मन के विकारों और उद्वेगों से मुक्त हो जाएँ, प्राणों में समाये अन्तस्-आकाश को खोज लिया जाए तो भीतर भी और बाहर भी, दोनों तरफ परमात्मा की खिलावट हमें प्रमुदित करेगी। चूँकि परमात्मा की सत्ता का आभामण्डल सारे अस्तित्व में, दिग्दिगन्त में व्याप्त है, इसलिए हम उसकी आभा से अछूते नहीं हैं, परन्तु हमारे द्वारा भले-बुरे काम करवाने का दोष हम परमात्मा के मत्थे नहीं मढ़ सकते। करने वाला परमात्मा नहीं वरन् आत्मा है, हम स्वयं हैं, हमारा अहंकार है, हमारा कर्ताभाव है। वास्तव में आत्मा की कर्तृत्वभाव से मुक्ति ही जीवन में परमात्म-स्वरूप की पहल है। भला-बुरा जो कुछ भी होता है, वह आत्मा के सहचर के रूप में रहने वाले कर्मों के कारण है, आत्म-अहंकार के कारण है, मन के आदेशानुसार गलत-सलत करते रहने की वजह से है। हर जीव की अपनी कर्म-नियति और प्रकृति होती है। मनुष्य एक के बाद एक कर्म करता चला जाता है। पूर्वकृत कर्मों पर नये कर्मों की परतें चढ़ती चली जाती हैं। जब वे कर्म उदय में आते हैं तो मनुष्य के सम्पूर्ण अस्तित्व को अपने चक्रव्यूह में घेर लेते हैं। वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। सच में तो हमें अपने मानसिक, | 39 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003866
Book TitleDharm me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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