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________________ है, इसीलिए धरती पर भी असमानता है। जैसे जिसके कर्म अथवा जैसी जिसकी किस्मत, उसके लिए वैसा ही उसका प्रतिफल! अगर हम अपने जीवन को परम-सुखी और परम-स्वतंत्र बनाना चाहते हैं तो या तो बहते हुए तिनके की भाँति हो जाएँ या फिर अपनी कर्मनियति बदल डालें। अपने सोचने और जीने की शैली को रूपान्तरित कर लें। नई अन्तर-दृष्टि से हर चीज़ को देखने का प्रयास करें। जो लोग धर्माचरण तो करते हैं पर अपनी कलुषित अन्तर-वृत्तियों को नहीं बदलते, उनका धर्माचरण उनके लिए आत्म-रूपान्तरण का कारण नहीं बनता। उससे तो मात्र धर्म का कथित व्यवहार निभ जाता है। व्रत-उपवास के नाम पर आदमी अमुक समय तक भूखा रह लेता है, पर अगर वह अपना काम-क्रोध नहीं घटा पाता तो उसकी तपस्या और आराधना सार्थक कहाँ हो पायी? मन्दिर में भगवान् की पूजा करें अथवा मस्जिद में ख़ुदा की इबादत, यदि व्यवहार में गाली-गलौच, छल-प्रपंच, मेल-मिलावट जारी रहता है तो यह वास्तव में अपने आप के साथ ही छलावा है, अच्छे बाने में कोढ़ का पलना है। परम त्याग का पथ तो मनुष्य के भीतर है। मनोविकारों का त्याग ही सच्चा त्याग है। लोग देश के लिए जीवन को कुर्बान कर देते हैं, हम अपने लिए मनोविकारों और दोषों का त्याग करें। स्वार्थ का त्याग परमार्थ को साधने का पहला मंत्र है। परमात्मा/परमेश्वर को अन्तर्मन में आत्मसात् कर हम भीतर के तमस् को दूर कर सकते हैं। उससे लगने वाली लौ हमें प्रकाश-पथ का अनुयायी बना देती है। हम अपनी मानसिक तामसिकता से मुक्त होने के लिए परमात्मा के दिव्य प्रकाश का ध्यान धरें। परमात्मा का स्थूल रूप न होने से वह भले ही किसी को दिखाई 143 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003866
Book TitleDharm me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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