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________________ से पलायन कर जाएगा। मैं पलायनवाद का विरोधी हूँ । जीवन को बोध के साथ जीया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति संत भी बनता है तो वह अंतरबोध के साथ संन्यस्त बने । व्यक्ति को मुक्त संन्यास नहीं करता। बल्कि आत्मबोध ही हमें मुक्ति की ओर ले जाता है। आत्म-बोध के बाद समाज से सम्पर्क समाप्त नहीं होता । दृष्टिकोण बदल जाता है । स्नेह रहता है, पर उस स्नेह और प्रेम के प्रतिकार में किसी तरह की प्राप्ति की आकांक्षा नहीं रहती । वह औरों को प्रेम देता हुआ इसलिए नज़र आएगा क्योंकि उसने अपने आपको जानकर यह बोध प्राप्त कर लिया है कि उसमें भी वही सत्ता है जो सबमें है । प्रेम उसका स्वभाव बन जाता है । उसे प्रेम और पूजा में कहीं कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता । तब मनुष्यता में रहने वाली पूज्यता की भावना भी सरलता में तब्दील हो जाती है । निन्दक - प्रशंसक सब पर उसकी समान दृष्टि रहेगी । वह सबसे प्यार करेगा । वह सबके लिए विश्व - मित्र बन जाएगा। सबसे प्रेम, सबकी सेवा उसके जीवन का दिव्य मंत्र हो जाएगा । आत्म-बोध के लिए तपस्या करना कोई निहायत ज़रूरी नहीं है । आत्मबोध के मायने अपने आपको प्रताड़ित करना नहीं है। यह तो स्वयं को समझना है । फिर देह तो रहेगी, पर देह के विकार उसे उद्वेलित नहीं कर सकेंगे। वह देह के धर्म को जान चुका होगा। रोग तो काया में उठेंगे, पर उसकी पीड़ा उसे सालेगी नहीं । आत्म-परिचय तो बस यह समझो कि कंकर को कंकर और हीरे को हीरे के रूप में पहचानना है । फिर व्यक्ति कंकर को कंकर जितना ही महत्त्व देगा और हीरे को हीरे जितना ही । झरने को झरने और पर्वत को पर्वत जितना । आत्म-तत्त्व को समझने वाला व्यक्ति हंस-दृष्टि का स्वामी हो जाएगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only | 61 www.jainelibrary.org
SR No.003866
Book TitleDharm me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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