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अभी तो हम भ्रम में हैं, कंकर हीरे एक-साथ रहकर धोखा दे जाते हैं और हम कंकर - सुख को ही हीरे का सुख मान बैठते हैं । यह वास्तव में चित्त की दूषितता है, अपवित्रता है। जीवन में बस अन्तरदृष्टि चाहिए ताकि चित्त के संस्कारों को साक्षी रूप में देख सकें, उसकी संवेदनाओं के प्रभाव से स्वयं को मुक्त कर सकें ।
परिचय और प्रसिद्धि के लिए नाम को ही आधार मान लेना, मात्र कर्त्ता - भाव का विस्तार है । कर्त्ता - भाव व्यक्ति का अहंकार है । नामगिरी, मात्र मन को दिया जाने वाला सान्त्वना पुरस्कार है। हम नाम एवं कुल-परिचय को व्यावहारिक परिचय तक ही सीमित रखें । अगर हमें यह अहसास हो जाए कि हर नाम आरोपित है, हमारा व्यक्तित्व नाम से हटकर भी है तो नाम से जुड़ी प्रशंसा - निंदा के प्रति वीतराग हुआ जा सकता है ।
नामकरण तो काया का होता है जबकि जीवन काया के आर-पार भी है । काया से हटकर वह क्या है, जीवन के उस मूल स्रोत को जीने के लिए ही ध्यानयोग है। मैं कौन हूँ - इस प्रश्न का उत्तर और अनुभव पाने के लिए ध्यानयोग मानो राजमार्ग है। ध्यान के दर्पण में अपने आत्मिक प्रश्नों का उत्तर साफ दिखाई देगा। केवल इतना ही नहीं, हर तरह के सच-झूठ का वहाँ इंसाफ मिल जाएगा। सम्भव है, सन्दर्भ न भी बदले, पर दृष्टि बदल जाए तो सन्दर्भ के सत्य तो साफ हो ही जाते हैं ।
आत्म-परिचय के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति इस बात का मनन करे कि वह कौन है? उसकी चेतना कहाँ, किन बातों या स्वार्थों में उलझी हुई है? हम अपने वास्तविक स्वरूप से मुखातिब होने के लिए अपने नक़ाबों को उतारें। आदमी ने चेहरे पर चेहरे पहन रखे हैं । एक
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