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________________ राजी होने वाले नहीं। भगवान तो तब नाराज़ होते हैं जब आप किसी भूखे-प्यासे इंसान की मदद नहीं करते, अंधे को रास्ता नहीं दिखाते, सत्य को सत्य जानकर भी उससे मुँह मोड़ लेते हैं । धर्म वास्तव में सदाचार का नाम है, सद्विचार और मानवीय भाईचारे का नाम है। धर्म अन्तरात्मा की आवाज़ भी है । अन्तर्बोध से जीना धर्म की मूलभूत प्रेरणा है । जब से मनुष्य ने अपने भीतर की आवाज़ को सुनना बन्द कर दिया, तब से धर्म जो मानवता के पाँवों की पायजेब था. वही पाँवों की जंज़ीर बन गया। लोग धर्म के नाम पर , आपस में टूट गये । आज किसी नये धर्म की ज़रूरत नहीं है, ज़रूरत है केवल धागा बनकर मानवता को जोड़ने की । हमें ३६ के आँकड़े को उलटकर ६३ का मैत्रीपूर्ण अंक बनाना होगा । आज लोग धर्म के नाम पर लड़ते-झगड़ते हैं, आपस में बँट जाते हैं। ख़ून-खराबा तक कर बैठते हैं, मन्दिरों और इबादतगाहों में आग लगा देते हैं। प्रश्न है - क्या ऐसा करना धर्म है ? साम्प्रदायिक सौहार्द की बात हर मज़हब करता है, पर धर्म को लेकर सदियों से दंगेफसाद होते रहे हैं। अब किसी संत या समूह की परम्परा धर्म का रूप ले चुकी है। धर्म की असलियत और विराटता खो गई है। सागर छोटे-छोटे डबरों में उलझ गया है। हमें मानसरोवर का हंस बनना चाहिए था, पर हम कुँए के मेंढक बन गए हैं । सम्प्रदाय और परम्परा महज एक सामाजिक व्यवस्था भर हैं । इनका धर्म से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता । सम्प्रदाय क्रियाओं और रीति-रिवाजों को ज़्यादा महत्त्व देता है जबकि धर्म जीवन के शाश्वत मूल्यों को। दुनिया का कोई भी धर्म क्यों न हो, यदि वह रीति-रिवाज़ों को गौण कर दे तो सबके मूल्य और मापदण्ड एक समान हैं। सभी Jain Education International For Personal & Private Use Only 15 www.jainelibrary.org
SR No.003866
Book TitleDharm me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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