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प्रवेश
धर्म का आविष्कार हुआ, क्योंकि मनुष्य अशान्त था। धर्म खोजा गया, ताकि मनुष्य शान्त हो सके। पर धर्म का जो रूप सामने आया, उससे मनुष्य शान्त न हो सका । शान्त हो सके सिर्फ़ वे व्यक्ति विशेष जिन्हें धर्म की सही समझ थी और वह उस समझ के अनुसार आचरण करने की सुदृढ़ता जिनके चरित्र का अंग बनी । शेष मानवजाति के लिए धर्म या तो अत्यधिक दुरूह बना रहा या कोरे क्रियाकाण्ड का पर्याय । नित्य नये पंथ, नई-नई उपासना पद्धतियाँ प्रकट और विलीन होती रहीं, पर संत्रस्त मनुष्यता को राहत न मिली, तो न मिली। आज तक व्यक्ति और समाज धर्म के किसी सरल पथ की तलाश में हैं, ऐसे पथ की तलाश में जो केवल संबुद्ध आत्माओं का पथ न हो बल्कि सामान्य जन के लिए भी बोधगम्य हो ।
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'धर्म में प्रवेश' इसी तलाश का परिणाम है । सर्व श्रद्धेय पूज्य श्री चन्द्रप्रभ की चैतन्य - मनीषा ने करुणा - द्रवित होकर धार्मिक सिद्धान्तों की दुरूह चट्टानों में से सरलता के छोटे-छोटे निर्झर तलाशे हैं
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