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RestaureaWAIRana
पहचानें, जीवन का
अंतरंग
मनुष्य के सामने यह एक बड़ा पेचीदा प्रश्न है कि वह कौन है? क्या वह किसी माता-पिता का पुत्र मात्र है? किसी का मित्र, भाई या पति भर है अथवा इसके अलावा भी कुछ है? सबके बीच जीते हुए भी उसे अकेलापन क्यों लगता है? वह हाड़-माँस का चलता-फिरता पुतला भर है या इसके अलावा भी उसका अपना कोई अस्तित्व है?
मनुष्य यह सब तो है ही, इससे ऊपर भी है। हर प्राणी में उसकी अपनी एक आत्म-सत्ता है जो उसके अन्तरजीवन में व्याप्त रहती है। भाई, बहिन, मित्र सब व्यवहारवश हैं। देहातीत दृष्टिकोण में या तो सभी स्वतंत्र सत्ता हैं या फिर सभी एक ही परम चेतना के अलगअलग माटी के दीये हैं। संबंध तो शारीरिक और मानसिक होते हैं, बनते-बिगड़ते रहते हैं, पर हमारी अन्तस्-चेतना इस बनने-बिगड़ने के हर दस्तूर से ऊपर है।
अपने पड़ौसी के घर-आँगन में बँधे पिंजरे और उसमें राम-राम
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