Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 94
________________ 2. जन्म-जन्मान्तर की तृष्णा और कलुषित कर्म - संस्कारों के कारण ही मैं दुःखी रहा हूँ। अब मैं अपनी आत्म-शुद्धि के लिए अपने हर कर्म और विकार के उदय के प्रति सावधान रहूँगा। मैं अपने मनोविकारों और कषायों का नियंत्रण तथा शोधन करूँगा । 3. हर व्यक्ति और हर परिस्थिति के प्रति अपनी दृष्टि को सदा उन्नत और सकारात्मक रखूँगा । ग़लत वातावरण में भी अपनी निष्ठा और विश्वास को विचलित नहीं होने दूँगा । 4. देह का अभिमान न रखते हुए मैं इसे परमात्मा का मंदिर मानूँगा और सबके प्रति समदृष्टि रखते हुए वीतद्वेष-भाव से जीऊँगा । 5. गुणीजनों और उपकारी महानुभावों का सम्मान करते हुए मैं मानवता को अपनी सेवाएँ समर्पित करूँगा । विचार-शुद्धि विचार शरीर और चेतना के बीच का सेतु है, जीवन और जगत् के बीच का संबंध-योजक है। व्यक्ति के जैसे विचार होते हैं, व्यक्तित्व वैसा ही निर्मित होता जाता है । हमारे विचार से हमारा व्यक्तित्व प्रभावित आन्दोलित होता ही है । वास्तव में हमारे विचार ऐसे हों जिनमें सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की सुवास हो । मनुष्य के स्वार्थी विचारों ने उसकी मानसिकता को विकृत और लालची बनाया है। रंग-रूप, वेश- जाति, पैसा - प्रतिष्ठा, भोगपरिभोग मनुष्य के विचारों में इस कदर अपनी पैठ बना चुके हैं कि मनुष्य अपने आपको, अपने मूल्यों को भुला ही बैठा है । वह गिरावट की हर सीमा को लाँघ चुका है। ईर्ष्या, स्वार्थ, चिंता, चिड़चिड़ापन, क्रोध, हिंसा - प्रतिहिंसा जैसे दूषित तत्त्व हमारी वैचारिकता को गिरवी Jain Education International For Personal & Private Use Only 93 www.jainelibrary.org

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