Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 83
________________ आपको देखने की कोशिश नहीं हुई । सिकन्दर या हिटलर ने चाहे जितने लोगों को अपने प्रति झुकाया होगा, पर सम्मान गाँधी-पुरुष ही पा सकते हैं, पूजा बुद्ध पुरुषों की ही होती है। 'संबोधि' कोई धर्म या धर्म की शब्द- परम्परा नहीं है । वह बोध है, आत्मबोध है, भीतर बैठे देवता को जगाने का उपक्रम है। होश और बोधपूर्वक जीवन जीना ही संबोधि की पहली और अंतिम प्रेरणा है । हर प्राणी आत्म- सम्पदा से युक्त है, फिर भी आत्म-बोध के अभाव में आत्मवान् नहीं है । आखिर मनुष्यता अपने आपको भूली क्यों? पहली बात तो यह है कि जो चीज़ सदा साथ हो, पास हो, व्यक्ति को उसका मूल्य ही नहीं लगता । खोने से ही वस्तु के महत्त्व का बोध होता है। मछली पानी में रहे तो उसे पानी का महत्त्व सामान्य लगता है। बाहर निकलने पर प्राणों के लिए जो तड़फन होती है, उसी से पता लगता है कि पानी का महत्त्व क्या है। मनुष्य जीवनभर आत्मा को भूला रहता है। शरीर से प्राण पखेरू उड़ने को होते हैं और आत्मा बग़ैर जीवन मुर्दा लगता है, तभी आत्मा के महत्त्व और निस्तार के मूल्यों का हमें अहसास होता है । 1 आत्मा के सदा साथ रहने के बावजूद, मनुष्य अपने विकृत चित्त के मायाजाल में ऐसा फँसा हुआ रहता है कि आत्म-सुख की उसे स्मृति ही नहीं आती । विकारों की आपूर्ति करके ही वह स्वयं को संतुष्ट - परितृप्त पाता है । आत्म-सुख इन्द्रिय- सुख नहीं, अतीन्द्रिय सुख है। शरीर और मन के संवेगों और उद्वेगों के तिरोहित होने पर ही आत्मिक मार्ग के दरवाजे खुलते हैं । देह - सुख के भूल-भुलावे में ही व्यक्ति स्वयं को भूल बैठा है और भटक रहा है। बोध के अभाव में ऐसा ही होता है। पत्थर पूजा जाता है, पुरुष 82 - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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