________________
हम स्वयं को पाखण्ड के बोझ से मुक्त करें और बोधपूर्वक स्वपर सुखाय जीवन-मूल्यों पर अपने क़दम बढ़ाएँ। गृहस्थ और संन्यास की दूरियाँ मिटाते हुए हर व्यक्ति गृहस्थ-संत होने का प्रयास करे, जल में रहकर भी कमलवत् निर्लिप्त।
वनवास में राम-जैसा जीवन व्यतीत करने की बजाय महलों में भी भरत-जैसा जीवन जीना अधिक श्रेष्ठ है । यह घर में रहते हुए भी संत-जीवन जीने जैसा हुआ। ___ हम जितना गति पर ध्यान दें, उतना ही स्थिति पर भी दें। पचास की उम्र तक गति पर बल दें तो शेष ढलती उम्र में स्थिति पर । बेहतर तो होगा कि हर दिन गति और स्थिति पर ध्यान दें। दिन में गति और साँझ ढलते ही स्थिति। हम श्रम और समाज से विमुख न हों। हम योगनिष्ठ रहें। आत्मा की गहराई में डूबे रहें, पर समाज से सम्पर्क बनाए रखें। कर्मयोग चाहे जितना करें पर मूल स्रोत के साथ संबंध बनाए रखें। ___ हम थोड़ी देर अपने काम से, कल्पना से, देह से, समाज से, चित्त
और उसके संस्कारों से अलग होने का अभ्यास करें। इस तरीके से हम वहाँ पहुँच सकते हैं जो मूल स्रोत हैं । जहाँ देह नहीं, दुनिया नहीं, चित्त और उसकी उठापटक नहीं, वहीं मौलिक शान्ति और आनन्द है। ज्ञानी उसे 'सत् चित् आनन्द' की संज्ञा देते हैं। चित्त के संस्कार
और शोरगुल के शान्त होने पर होने वाली अनुभूति ही शान्ति है और उस शान्त मनःस्थिति में भीतर जो प्रमोद, जो अहोभाव/अहोनृत्य उमड़ता है, उसी का नाम आनन्द है।
हम स्वयं की आत्म-स्मृति बनाए रखें और आत्मस्थिति के लिए निरन्तर सजग और प्रयत्नशील रहें। वही गति प्रगति है जो हमारी
| 85
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org