Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 85
________________ जी सके। अपने आत्म-ज्ञान के बलबूते धरती पर चलने का आत्मबल बटोर सके। औरों पर तो हमें प्रेम के मोती लुटाने ही हैं, पर सबसे पहले हमें आत्म-सुधार पर ध्यान देना चाहिए। मनुष्य के पास सृजनात्मक शक्तियों की पूरी संभावना है। हम अपनी स्वार्थी और विकृत प्रकृति को बदलें, साथ ही अपने आत्म-विश्वास को उपलब्ध कर स्वयं में नई शक्तियों एवं संभावनाओं को भी जन्म दें। हर रोज कम-से-कम सुबह-साँझ तो अपने भीतर का निरीक्षण कर लें, अपनी कमजोरियों को दूर कर लें। स्वयं तो परम शान्ति में जियें ही, औरों को भी अपनी ओर से सौरभ प्रदान करें। हमें सबके लिए भी जीना आना चाहिए। व्यक्तिगत अभ्युदय के साथ समष्टि का अंग बनकर जीना चाहिए। केवल काम और अर्थ ही हमारा पुरुषार्थ न हो, धर्म और मोक्ष भी हमारा पुरुषार्थ और लक्ष्य होने चाहिए। इस पुरुषार्थ के लिए ही आश्रम की व्यवस्था की गई है। आश्रम का अर्थ मठ या मठाधीश होना नहीं है। आत्मोदय के साथ सर्वोदय के विचार व भाव ही आश्रम-व्यवस्था की आधारशिला है। ब्रह्मचर्याश्रम पहलवानी के लिए नहीं, वरन् निर्मल चित्त से सेवा, विनय और ज्ञानार्जन के लिए है। गृहस्थाश्रम भोगाश्रम नहीं, बल्कि अर्थ और काम द्वारा सांसारिक धर्मों को निभाते हुए, एक से अनेक में बढ़ते हुए जन-सेवा तथा समाज-सेवा करना है। वानप्रस्थाश्रम वन की ओर पलायन नहीं, वरन् पारिवारिक सीमा से बाहर आकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को आत्मसात् करना है । संन्यास मात्र नाम-वेश बदलना नहीं है। यह तो शांति, सहिष्णुता, पवित्रता और आत्म-मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना है। 84 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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