________________
का बाना न पहन सकें, पर हृदय को तो साधु बनाया ही जा सकता है। मैं तो चाहता हूँ कि हर संसारी अपने-आप में साधु हो, हृदय से साधु, स्वभाव से साधु! साधुता और सज्जनता की रोशनी उसके आचारव्यवहार में झलके। हर कोई पूरी तरह स्वस्थ हो, निर्व्यसन हो, माधुर्य और आनन्द से सराबोर ! गृहस्थ-संत होना ही मानवमात्र का उद्देश्य
हो।
बुराइयों और अंधविश्वासों का त्याग करते हुए सत्य और निष्ठाशील जीवन जीना ही सच्ची साधुता है।
दीक्षा वास्तव में जीवन का उज्ज्वल रूपान्तरण है। हममें जो गलत आदतें पड़ गई हैं, कुसंस्कार आ चुके हैं, उन्हें छोड़कर सभ्य, संस्कारशील और पवित्र जीवन जीना ही हमारा प्रथम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ होना चाहिए।व्यवसाय का कर्मयोग होना चाहिए, विवाह का गृहस्थाश्रम निभाया जाना चाहिए। सुख-सुविधाएँ जीवन-यापन के लिए स्वीकार्य हैं, परंतु हमें ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए जो हमारे दामन में दाग लगाए। ऐसे कार्यों को करने से बचें जिनसे हमें नीचा देखना पड़े।
जीवन निरन्तर संघर्ष से भरा हुआ है। यदि हम अपने बोध, विवेक और ईमान को दरकिनार कर बैठेंगे तो जीवन को जीना हमारे लिए इतना दुश्वार हो जाएगा कि हम जीने के नाम पर या तो लाश को कंधे पर ढोते फिरेंगे या फिर जीवन को नरक बना डालेंगे। तब आत्महत्या हमें जीवन-मुक्ति का एकमात्र उपाय नज़र आएगा।
मेरे समझे, हमारे समक्ष दो मूल्य हैं - पहला तो गति और दूसरा है स्थिति। हमें पचास की आयु तक गति-प्रगति पर ध्यान देना चाहिए जबकि शेष जीवन को स्थिति पर केन्द्रित करना चाहिए।गति विकास
88
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org