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दुत्कारा जाता है। एक ओर फूल चढ़ाए जाते हैं दूसरी ओर काँटे गड़ाए जाते हैं । सभाओं में अहिंसा और शांति के कपोत उड़ाए जाते हैं, पर मंचों की ओट में शस्त्र-अस्त्रों के कारखाने चलाए जाते हैं। ज्ञान की बातें महज उपदेश बन जाती हैं और उपदेश मानो औरों को ही देने के लिए होते हैं। अधिकारों के नाम पर न जाने कैसे-कैसे प्रपंच और महाभारत रचे जाते हैं। स्वयं का बोध होने पर ही वास्तविकता के प्रति वफ़ादारी आती है। फिर केवल पुरुष ही नहीं पूजा जाता बल्कि पत्थर में भी परमात्मा का रूप देख लिया जाता है । फूलों के बदले में तो फूल दिये ही जाते हैं, पर ज्ञानी व्यक्ति तो काँटों के बदले में भी फूल लौटाता है। फिर ज्ञान बखानने के लिए नहीं, जीने के लिए होता है। अन्तर-बोध हो जाए तो अपनों में और औरों में कोई फ़र्क ही नहीं लगेगा। फिर तो शहरों की भीड़ में भी एकत्व का आनन्द होगा और जंगल की नीरवता में भी शून्य का संगीत सुनाई देगा।
मैंने तो धर्म का यही रूप जिया है कि अपने प्रति ईमानदार रहो, अवचेतन के प्रति जागरूक रहो, सबकी सेवा करो, सबसे प्यार करो, सबमें घुलमिल जाओ और हर ठौर परमात्मा का आनन्द लो। ___ आत्मबोध की आवश्यकता इसलिए है ताकि व्यक्ति स्वयं के प्रति भी श्रद्धान्वित हो और औरों की आत्म-अपेक्षाओं को भी समझ सके, रोग, कषाय और विकार को शरीर तथा मन का स्वभाव मानकर अपनी अन्तर-स्थिति को बरकरार रख सके। हमें आत्म-बोध और विश्व-प्रेम के साथ धरती पर जीना आना चाहिए। साधना द्वारा पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त करना अथवा आकाश में उड़ने की शक्ति अर्जित करना साधना का आध्यात्मिक रूप नहीं है। पानी में तैरना या आकाश में उड़ना तो मनुष्य का मत्स्य-जन्म है, पक्षी-जन्म है। मनुष्य की सार्थकता तो इसी में है कि वह सच्चा मनुष्य बनकर मनुष्य के साथ
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