Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 80
________________ परमेश्वर प्रकृति की डाल-डाल, पात-पात है। मानवता का क्षेत्र अत्यन्त विस्तीर्ण है। जहाँ तक मनुष्य के स्वामी का सवाल है, वह उसके अपने भीतर बैठा है। मनुष्य की गंदी वृत्तियों के कारण भीतर बैठा हुआ स्वामी मानो कुत्सित हो गया है। स्वामी कुरूप रहे और स्वामी का रथ गारित किया जाता रहे तो इसमें कोई तुक नहीं है। अन्तर-सौन्दर्य तो सदा अपना शाश्वत मूल्य रखता है। एक बार कुरूप चेहरा चल जाएगा, मगर कुरूप आत्मा कभी नहीं चलेगी। हमें अन्तरमन में विराजमान सत्य-शिव-सौन्दर्य के स्वरूप पर ध्यान देना चाहिए। हमें अपने स्वभाव को सुन्दर और आकर्षक बनाना चाहिए। सुन्दर यहाँ बहुत कुछ है पर, तुम सुन्दर हो सबसे बाँके। झूठी है काया की माया, सत्य-हृदय से शिवता झाँके। हमारे अन्तर-हृदय में शिवत्व का बीज है, परन्तु स्वयं को मात्र दैहिक मान लेने के कारण ही मनुष्य भूल-भुलावे में भटका है। अगर व्यक्ति अपने अन्तर-जगत में झाँक ले, अन्तर-शांति और अन्तरसौन्दर्य को मूल्य देना प्रारम्भ करे तो जीवन-मूल्यों में आ रही गिरावट की रोकथाम की जा सकती है। मनुष्य अपनी आत्मा और उसके मूल्यों को भूल चुका है। उसके लिए जीवन कोई सनातन तीर्थ-यात्रा नहीं, वरन् जन्म से मृत्यु तक का सफर भर है। जीवन जन्म-जन्मान्तर की परम्परा है, यह संसार का सबसे गहरा सत्य है। आखिर जितने भी सत्य हैं, सब जीवन की गोद में ही पलते हैं। यहाँ तक कि हर तरह की बदी और वीभत्सताएँ भी जीवन में ही अपना घर बनाए रखती हैं। | 79 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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