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चेहरे पर लोग कई चेहरे लगा लेते हैं। नकली सूरत के पीछे असली चेहरा दबा रह जाता है । हमारा असली चेहरा, असली स्वरूप क्या है, वह ज्ञात होना चाहिए। ध्यान हमें अपनी प्रामाणिक निजता की ओर ले जाता है, अपने सच्चे स्वरूप के प्रति सजग होना ही धर्म और अध्यात्म में प्रवेश है ।
'मैं कौन हूँ' इस प्रश्न से अन्तर - प्रवेश की भूमिका तैयार होती है । मैं कौन हूँ - आत्म-परिचय के लिए यह सर्वसिद्ध मंत्र है। अभी हम अपने-आप से पूछेंगे कि मैं कौन हूँ, तो जवाब आएगा मैं यह हूँ या मैं वह हूँ। पर नहीं, ये ज़वाब मन की चालें हैं। मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ, शिक्षित हूँ या अशिक्षित हूँ, अमीर हूँ या गरीब हूँ - ये उत्तर मन के हैं ।
हम इसे ध्यान -प्रक्रिया के अन्तर्गत लें और अपने-आप में इसे टटोलते रहें। अपने में देखते रहें। अपने में अपना अहसास करें। हम अपनी साँसों में डूबें, शरीर को और शरीर की संवेदनाओं को जानें, उसके ज्ञाता - दृष्टा हों। अपने अंतरमन को समझें, अंतरमन की वृत्तियों के ज्ञाता - दृष्टा हों । शरीर, विचार और मन के प्रभावों से मुक्त होकर ही हम अपनी आत्म- चेतना से रू-ब-रू हो पाएँगे। सुबह, दोपहर, साँझ, रात, जब भी फुर्सत के क्षण हों, शान्त भाव से अपने में उतरें । धैर्य और थिरता से स्वयं में देखते रहें । जब-तब मनन करते रहें । मनन से मार्ग मिलता है। 'कर विचार तो पाम' । विचार करेंगे, तो उसका परिणाम भी पाएँगे ।
हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है? जो मेरा नाम है, मैं उतना भर हूँ या मेरा अन्य कोई स्वरूप भी है ? जीवन में इतने मानसिक संत्रास क्यों हैं? क्रोध और विकार क्यों इतने व्यथित करते हैं? माता-पिता जीवन के निर्माता हैं या जीवन के निमित्त संयोग
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