Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 76
________________ केन्द्रित होना है, अलग-अलग धाराओं में बहने की बजाय एकधार हो जाना है। मन चेतना का बाहर की ओर बहना है, बुद्धि चेतना का अन्तर-मस्तिष्क में जमाव है। मन कल्पना करता है, बुद्धि स्मरण रखती है। मन इच्छा करता है, बुद्धि इच्छा-पूर्ति की राह दर्शाती है। कल्पना, कामना और प्रतीति मन के कर्तृत्व हैं, जबकि विचार, निर्णय, धारणा, ज्ञान, स्मृति ये सब बुद्धि के धर्म हैं। __ हमारी आत्म-चेतना जैसे-जैसे सघन और जाग्रत होती जाती है, वैसे-वैसे बुद्धि की क्षमता बढ़ती जाती है। शान्त मन से बढ़कर कोई आनन्द का स्वामी नहीं है और जाग्रत बुद्धि से बढ़कर कोई विद्वान् नहीं है ।शान्त मन मनुष्य के लिए अन्तरज्ञान का रोशनी-भरा द्वार है। मन हवा है, मस्तिष्क दीया है, बुद्धि लौ है और प्रज्ञा प्रकाश है। हृदय वह तत्त्व है जो प्रकाश का आनन्द उठाता है । मन नीचे गिराता है, हृदय ऊपर उठाता है। हृदय का नाभि के नीचे की ओर बहना संसार है, जबकि ऊपर की ओर झाँकना मुक्ति की पहल है। यह ब्रह्मविहार है। हम हमारे ज्योति-केन्द्र पर एक रसभरी, परम धन्यता के आनन्द में डूबी दस्तक हैं, भोर हैं। आत्म-चेतना की प्रफुल्लता के लिए हमें मनोमस्तिष्क को सदा प्रफुल्लित रखना चाहिए। हम शरीर नहीं, शरीर में हों, मन नहीं, मन में हों। अपनी दिव्यता में ही देवत्व है। मन में पवित्रता और हृदय में प्रफुल्लता सबके लिए यही सर्वश्रेष्ठ मंत्र है। ___ जीवन में चाहे अनुकूल परिस्थिति बने या प्रतिकूल - दोनों ही हालत में अन्तरमन को निष्प्रभावी रखना व्यक्ति का देहातीत होकर जीना है। मैं कौन हूँ - इसका सदा बोध रखें ताकि निंदा-प्रशंसा, पीड़ा-व्यामोह हमें घेर न सकें। चेतना की मुस्कान हर हाल बनी रहे। 75 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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