Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 74
________________ हो, जैसा हो, उसके दृष्टा बने रहें। ___ आज की नियति वास्तव में आत्मा का अतीत रहा है। आत्मा न तो पूरी तरह शुद्ध रही और न ही मुक्त । वह अपने संस्कारों के सातत्य के कारण अथवा विकृत प्रकृति और योगानुयोग के कारण सदा-सदा से संसार में रही है, संयोग-संबंधों के मकड़जाल में भ्रमणशील रही है। आत्मा किस धाम से आयी, इसको पैदा किसने किया, इस सन्दर्भ में मौन रहना ही सार्थक है। बस, यह भीतर के आकाश में व्याप्त एक अभौतिक ऊर्जा है, निज सत्ता है, सम्पदा है। जब गहरे ध्यानयोग में, परिपूर्ण शून्य में हमारी बैठक होती है तो आत्मा आनन्द और ज्योतिस्वरूप चैतन्य-तत्त्व के रूप में ही ज्ञात होती है। गूढ मन में हम अपनी नियति, संवेग एवं संयोग-संबधों के भी साक्षी होते हैं। अपने अतीतगत संयोगों को देखकर ही हमने यह जाना कि मनुष्यात्मा इस एक जन्म की ही ईज़ाद नहीं है। इस जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व रहा है। जिन कर्म-प्रकृतियों को हम आज अपने अन्तरमन में अनुभव कर रहे हैं, उसका कर्ता पहले भी रहा होगा। एक बात तय है कि हम कर्म-प्रदेशों, वृत्तियों और संयोगों से सदा घिरे हुए रहे हैं । अशुद्धि और बन्धन, कम हों या ज़्यादा, सदा हमारे साथ रहे हैं। दुर्भाग्य और सौभाग्य के नक्षत्र हमारी ही निर्मिति हैं। कालचक्र की चाल में कौन सदा एक-सा रह पाया है? दुनिया एक मुसाफिरखाना है और हम इसमें आते-जाते रहते हैं। स्थान बदलते रहे हैं, पर धरती तो यही की यही है। मृत्यु हमें धोखा ज़रूर देती रही, पर हम हर बार नयी तैयारी के साथ जनमते रहे हैं। स्वर्ग और नरक को हमने यहीं पर जिया और भोगा है। सुख की स्थिति में आत्मा में स्वर्ग प्रकट होता है और दुःख की अवस्था में | 73 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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