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उठापटक है। विचार लक्ष्योन्मुख होते हैं। अगर बुद्धि शांति से किसी भी चीज़ को सोचे तो वह मार्गदर्शी निष्कर्ष को उपलब्ध कर लेगी ।
भाव अवस्था है । भावों का विचार या विकल्प से सम्बन्ध भले ही हो, पर मन और बुद्धि के द्वारा भावों की हत्या नहीं की जा सकती । सच तो यह है कि जैसी भाव - अवस्था होती है, मनुष्य का मन तदनुसार ही सोचा- विचारा करता है। भाव विकल्प और विचार दोनों से भी गहरी मनःस्थिति है ।
हमें जिस मन का अनुभव होता है, वह चेतनागत व्यक्त संस्कारों की अभिव्यक्ति के कारण है । यह मनुष्य का चेतन मन है। मूल आत्म- चेतना तो हमारे गूढ़ मन में रहती है। चेतन और अवचेतन मन के पार लगें तो ही गूढ़ता में प्रवेश होता है। चेतन मन सक्रिय रहता है, अवचेतन मन सुषुप्त रहता है। जिसे हम चित्त कहते हैं, वह वास्तव में मनुष्य का अवचेतन मन ही है। यह मनुष्य का अव्यक्त मन है I वृत्तियाँ इस अवचेतन मन से ही उठा करती हैं। जन्म-जन्मान्तर के संस्कार और संवेग ही मनुष्य की अन्तरवृत्तियाँ हैं । जब तक वृत्तियाँ समाप्त न हो जाएँ, तब तक ये अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं ।
वृत्तियों को समाप्त करने का सबसे सुगम मार्ग तो आत्मबोध को रखते हुए, अन्तर-जागरूकता के साथ उसका उपयोग या उपभोग कर लेना है। यद्यपि उपयोग और उपभोग का मार्ग खतरे से भरा है, उसमें भटकाव का भय है, पर अगर सही में आत्मबोध जगा है तो वह व्यक्ति को भटकने से पहले ही उबार लेता है । वृत्तियों से छुटकारा पाने के लिए सतत साक्षित्व प्रकट हो जाए, तभी बहुत बड़ी मदद मिल सकती है। मेरे देखे तो, आत्मबोध और आत्म- चौकसी को दीपक की तरह हाथ में रखें और शेष सब कुछ नियति पर छोड़ दें । जो
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