Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 75
________________ हमारा अस्तित्व नरकमय होता है। करुणा और प्रेम हमें स्वर्ग की विभूति बना जाते हैं, काम और क्रोध हमें नरक के तमस् में तब्दील कर डालते हैं। स्वर्ग और नरक स्थान-सूचक नहीं, स्थिति सूचक हैं । अतीत का आत्म-कर्तृत्व हमारे वर्तमान का भाग्य बन जाता है। भाग्य सिकन्दर भी हो सकता है और भिखमंगा भी। भाग्य चाहे जो उठापटक करे, अगर मनुष्य को जीने की कला आ जाए तो वह नरक को भी स्वर्ग में बदल कर जी जाता है। दुनिया का काम ठोकरें मारना है। उसके लिए जिंदगी एक खिलौना है। जो जीवन से खेलते हैं, उनसे जीवन की कैसी शिकायत करनी! हमारी शिकायत सुनने वाला तो हमारे अपने भीतर बैठा है। पर अपने से भी शिकायत क्यों करनी! क्योंकि जो हो रहा है, वह हमारे अपने ही किये हुए का भुगतान है। हम सहज हों, आत्म-स्थिति का अवलोकन करें और नये कर्मों के प्रति सतर्क रहें। कोई कैसा भी कर्म क्यों न करे, पर हर किसी को याद रखना चाहिए कि उसे अपने हर कर्म का भुगतान करना ही होगा। मैंने अपने अव्यक्त कर्म और कर्मोदय को देखा है, अपने अतीतगत संयोगों को पहचाना है, उसके परिणाम देखे हैं, इसीलिए कहता हूँ कि अपने किये गये कर्मों की सजा से बचा नहीं जा सकता। हम अनंत-अनंत सम्भावनाओं के पुंज हैं । चित्त, मन, हृदय और बुद्धि के सार्थक पहलू भी हैं। हम अपनी अन्तरात्मा को मूल्य दें। भीतर का एकान्त हमें अपनी ओर बुलावा भेजता है। हम उस ओर ध्यान दें। मन पर बुद्धि का आधिपत्य होना चाहिए। हमें हृदयपूर्वक जीना आना चाहिए। मन बुद्धि का भटकाव है और बुद्धि भटकते मन का 74/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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