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सौरभ आती है और प्रभात के पुष्प परमात्मा को समर्पित कर दिये जाते हैं। किससे बचूँ, किससे लगूँ- यह सोच ही कहाँ ! जब पूरे अस्तित्व में उस परम-आत्मा, परमात्मा, परमेश्वर की मौजूदगी महसूस होती हो ।
सम्भव है, बहुत सारे लोग दुनियादारी के भुलावे में परमात्मा को भूल जाएँ अथवा न भी मानें, पर व्यक्ति जब कभी भी स्वयं को व्यथित और असहाय पाता है, कम-से-कम उस समय तो अवश्य ही उसका अन्तरहृदय स्वतः परमात्मा को पुकार उठता है । हालांकि यह सच है कि परमात्मा किसी का भला-बुरा नहीं करता, कर्तृत्व-भाव से मुक्त होने के कारण ही वह सत्ता परमात्मा कहलाती है । पीड़ा और संघर्ष की वेला में हम परमात्मा को इसलिए याद करते हैं ताकि हमारा मनोबल बना रहे, परमात्मा की शक्ति हमें नैतिक बल प्रदान करती रहे ।
परमात्मा के ज्योति-प्रदेश सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हैं । जो भी आत्माएँ जन्म-मरण की संस्कार - धारा से मुक्त हो जाती हैं, उनके निर्मल आत्म- प्रदेश सकल ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर अपनी विराटता को उपलब्ध कर लेते हैं, बूँद महासागर हो जाती है।
मुक्त आत्माएँ परमात्म-स्वरूप होती हैं । परमात्मा कोई व्यक्तिवाचक नहीं है । आत्मा के अस्तित्व की परम अवस्था को उपलब्ध कर लेने का नाम ही परमात्मा है । मनुष्य की मुक्ति हो जाने के बाद मुक्त आत्माओं में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रहता । सब समान हो जाते हैं । हर भाव से मुक्त हो जाते हैं । परमात्मा वास्तव में मुक्त आत्माओं को दिया जाने वाला एक पवित्र सम्बोधन है ।
परमात्म-सत्ता में कहीं कोई भेद नहीं होता । भेदों का निर्माण तो
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