Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 60
________________ आत्म-परिचय दूसरी शब्दावली में आत्म-ज्ञान है। जनमानस में एक भ्रांति घर कर गई है कि आत्मज्ञानी नहीं हुआ जा सकता है जबकि आत्म-ज्ञान न टेढ़ा काम है, न ही विरला। अपने आपको पहचानना भला कौन-सा टेढ़ा काम है ! खुद को हर कोई जान सकता है। मैंने जितनी सहजता से अपने अंतस् के आकाश में उसका बोध पाया है, उससे ही मैं कह सकता हूँ - 'अपने आप से ऊपर उठ जाओ तो अपने आपको सहजतया पहचान लोगे।' शान्त मन ही आत्म-ज्ञान के रास्ते पर क़दम रख पाते हैं । जब तक हमारा मन शांत और निर्मल नहीं होगा हम अपने भीतर में स्थित नहीं हो पाएँगे। भीतर स्थित हुए बिना आत्म-ज्ञान के प्रकाश से साक्षात्कार नहीं हो सकता। मन के संवेग, उद्वेग, आकर्षण और विकार हमें बाहरी दुनिया में उलझाए रखेंगे।आत्म-ज्ञान का मार्ग ध्यान है। ध्यान के द्वारा हम मानसिक शांति पाने का अभ्यास करते हैं। शांत मन की स्थिति घटित होने पर ही हम अपने भीतर के अस्तित्व की अनुभूति में उतरते हैं। हम किसी मृत शरीर के साथ अपनी तुलना करके देख सकते हैं। जीवित शरीर और मृत शरीर में केवल एक ही तत्त्व का फ़र्क है और वह फ़र्क है प्राण-चेतना का। जब तक हमारे शरीर के साथ प्राणचेतना का साहचर्य है तब तक शरीर सुरक्षित है। प्राण-पखेरू उड़ते ही शरीर मिट्टी में मिला दिए जाने के योग्य हो जाता है। हम कभी किसी की अंत्येष्टि में शरीक हों तो मृत शरीर के साथ अपनी तुलना करके अवश्य देखें। आपको उसी क्षण आत्म-ज्ञान की पहली किरण मिल जाएगी। आत्म-ज्ञान होने का मतलब यह कतई नहीं है कि व्यक्ति संसार 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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