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मानव-मन करता है। परमात्मा अमन है, मन की अनर्गलता से मुक्त है । जो भेद नज़र आते हैं, वे जन्म, जाति, रंग, धन, वैभव, पदप्रतिष्ठा से उठापटक के चलते नज़र मुहैया होते हैं । जीवन - मुक्ति और देह-मुक्ति के बाद तो सारे भेद मिट जाते हैं, परम अभेद दशा उपलब्ध हो जाती है, परम आत्मा - स्वतंत्रता का संगान होता है । उस भागवत् दशा में होती है - परम शान्ति, परम ज्ञान, परम आनन्द, सच्चिदानंदमयी दशा ।
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परमात्मा का स्मरण हम इसलिए करते हैं ताकि उसकी शान्ति, ज्ञान और आनन्द की उर्मियाँ हमें भी मिल सकें । निश्चय ही परमात्मा सर्वत्र है । विदेह होने के कारण परमात्मा के कान नहीं हैं, लेकिन वह फिर भी सुनता है । आँखें नहीं हैं, फिर भी देखता है । पाँव नहीं हैं, फिर भी चलता है । अपनी अंतर ज्योति की बदौलत सारी सृष्टि परमात्मा में प्रतिबिम्बित हो जाती है। प्रभु तो सदा ध्यानस्थ है, ज्योति स्वरूप है, परम चैतन्य - स्वरूप है, आनन्द का सागर है । वह ऐसा प्रकाश है जो जन्म की त्रासदी और मृत्यु के अन्धकार से मुक्त है ।
यदि दिव्यता की प्यास हो तो परमात्मा से हमें सब कुछ मिल सकता है । वह हमारा तीसरा नेत्र बन सकता है । हमारे अन्तरहृदय के मानसरोवर में वह राजहंस की भाँति उन्मुक्त विहार कर सकता है। अज्ञान और दलदल से घिरी प्राणीजाति के लिए परमात्मा एक हरीभरी मुस्कान है।
यह मानना हमारी निरभिमानता और सौहार्दता है कि धरती पर जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा का आविष्कार है । वस्तुतः जो कुछ भी परिवर्तन अथवा संचलन दिखाई देता है, वह सब प्राकृतिक है, नैसर्गिक है। प्रकृति की अपनी व्यवस्थाएँ हैं। सन्तुलन बनाए रखने के
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