Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 52
________________ कर्म-बंधन के प्रति सजग हों। कर्म वास्तव में हम पर ही लौटकर आने वाली हमारी ही प्रतिध्वनि है। यह हमारे ही अस्तित्व की प्रतिच्छाया है। कर्म मनुष्य का कारनामा है। कर्म सुशील हों, यह आवश्यक है। आत्म-शुद्धि और आत्ममुक्ति के लिए तो हर तरह के कर्म-बन्धन से छुटकारा हो जाना चाहिए। किसी का सभ्य संस्कारित घर में जन्म लेना और किसी का ग़रीब घर में पैदा होना कर्म-परिणामों की ही विविधता है। कोई स्त्री के रूप में जन्म ले रहा है जो कोई पुरुष के रूप में, कोई रोगी कोई निरोगी, कोई प्रतिभावान अथवा जड़बुद्धि, आखिर इन सबके पीछे हमारे द्वारा अतीत में बटोरे गए कर्मों की ही भूमिका है। कर्म कोई एक जन्म की कहानी नहीं है। वह जन्म-जन्म की कहानी है। किसी की आँख में यह मुस्कान है तो किसी की आँख में पानी। पूर्वजन्म के कर्म जीव के पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। शुभ कर्मों का फल शुभ होता है और अशुभ कर्मों का फल अशुभ।कर्म की सजा से बचा नहीं जा सकता। हर मनुष्य को तक़दीर की मार झेलनी ही पड़ती है। बेहोश सम्मूर्छित दशा में कर्म की नियति से गुज़रे तो कर्मों का कभी निरोध नहीं होने वाला। यह दलदल और फैलता चला जाएगा। पुराने कर्म अपनी भोग्य-दशा में और नये कर्मों का सृजन करवा लेंगे। जो बोध एवं जागरूकता के साथ अपनी कर्मवृत्तियों का साक्षी है, उसे कर्मों की चिनगारियाँ जला नहीं सकतीं। प्रगाढ़ कर्मों को जीये या काटे बगैर मिटाया नहीं जा सकता, पर उनके प्रति तटस्थ तो रहा ही जा सकता है। तटस्थता, साक्षीभाव, द्रष्टाभाव ही मनुष्य को अपनी | 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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