Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 54
________________ 'पूर्णजन्म' से अभिप्राय आत्मा की कर्म-बंधन से, जन्म-मृत्यु से मुक्ति है। पूर्वजन्म की स्मृति हमारे अवचेतन अथवा गूढ मन की परतों के उघड़ने से होती है। जिसकी चेतना मन के पार पहुँच जाती है उसे कभी भी किसी भी क्षण अपने अन्तरध्यान में पूर्वजीवन की झलकियाँ नज़र आ सकती हैं । सीधे बीते जन्म का भी बोध हो सकता है और पूर्वजन्मों में से किसी भी जन्म की झलक मिल सकती है। ध्यानयोग की गहराई में पूर्व जीवन के दृश्य दिखाई देने सम्भावित हैं। ध्यान-साधना के अतिरिक्त इसमें निमित्त भी प्रभावी हो सकता है। किसी व्यक्ति या स्थान को देखकर हम क्षण भर में आकर्षित हो जाते हैं। उसे देखने से, उससे मिलने से हमें अपने अन्तर-हृदय में मानो एक सुकून मिलता है। एक अजीब-सी परितृप्ति अथवा बेचैनी महसूस होती है। आखिर इसका राज़ क्या है? ज़रूर कोई पूर्व संबंध है, योगानुयोग है। किसी का एक नज़र में ही दिल में बस जाना, वहीं किसी का फूटी आँख न सुहाना - ये सब केवल आज के ही संयोग नहीं हैं। इनके पीछे कोई और बैठा है। जन्म-जन्मान्तर की नियति काम करती है। हमें जिन पूर्व घटनाओं का स्मरण होता है उनमें कुछ तो ऐसी होती हैं जिन्हें देखने-जानने के बावजूद हम सामान्य बने रहते हैं। जैसे थे वैसे ही। लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी भी दिखाई दे सकती हैं जो हमारे जीवन को ही प्रभावित कर डालती हैं। कभी-कभी तो यह गले की फाँस ही बन जाती है। वह हमारी सोच और साधना की धारा ही बदल डालती है। पूर्व स्मृत प्रसंग कृतकृत्य भी हो सकते हैं । वे संयोगाधीन भी हो सकते हैं और विकृत भी। पूर्व स्मृति चाहे जैसी हो, वह व्यक्ति के 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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