________________
मुक्ति-भाव को जीना है ।
जिसे प्रभु जीवित रखना चाहते हैं भला उसे कौन मार सकता है। यों तो मरने वाला भी व्यक्ति है और बचने वाला भी । अगर उसकी अपनी नसीब है तो किसी की लाख कोशिश के बावजूद भी वह बच जाएगा। परमात्मा संहारक या मारनेवाला नहीं हो सकता । वह तो दयालु और कृपालु है । वह किसी को क्यों मारेगा? वह तो अस्तित्व की पुलक है, फूलों की लाली है, झरनों का कलरव और परिन्दों का संगीत है । परमात्मा अस्तित्व का हृदय है । वह मारता नहीं, तारता है । कर्मों की रेखा चुक जाने पर ही मनुष्य का संहार होता है । भगवान् भी मनुष्य की कर्म-नियति को मिटा नहीं सकते। राम के वनवास या सीता के वनवास को स्वयं राम या सीता भी न टाल पाए। होनी बड़ी प्रबल है। इसीलिए कहता हूँ कि हमें अपने आप पर ध्यान देना चाहिए। अपनी आवाज़ को सुनना चाहिए। स्वयं में प्रतिध्वनित हो रही हर अनुगूंज पर कान देने चाहिये। अपने हर कर्म के प्रति सचेतसावधान रहना चाहिए ।
आदमी की नियति अथवा प्रकृति कितनी भी बुरी क्यों न हो, अगर हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ को नज़र - अन्दाज न करें, उस पर अमल करें, तो यह काफी कुछ सम्भावना है कि हम बदी की राह पर चलने से अपने आपको बचा लेंगे । अन्तरात्मा की आवाज़ वास्तव में परमात्मा की ओर से ही मिलने वाले संकेत हैं । अन्तरात्मा की आवाज़ को सुनना और जीना ही धर्म का आचरण है ।
धरती पर रंग, रूप, शक्ति अथवा वैभव को लेकर ढेर सारे भेदभटकाव हैं, पर यह भेद-भटकाव कराने वाला परमात्मा नहीं है, वरन् हर मनुष्य की अपनी कर्म - दशा है। चूँकि हमारे कर्मों में समानता नहीं
42
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org