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जाता है। भला कोई आदमी चोरी करे, और वह यह तर्क दे कि सब प्रभु ही करवा रहा है तो यह अपने पाप से भागने का तरीका हुआ। यदि चोरी और व्यभिचारी का कर्त्ताभाव हम परमात्मा से जोड़ते हैं तो न्यायाधीश द्वारा दंडित किये जाने पर यह क्यों कहते हैं कि न्यायाधीश ने मेरे साथ अन्याय किया है।
एक व्यक्ति चोरी के अपराध में न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित किया गया। न्यायाधीश के मस्तक पर चंदन का तिलक लगा हुआ था। चोर ने मौके का लाभ उठाते हुए कहा - चोरी मैंने नहीं की। सब प्रभु ही करवा रहा है। न्यायाधीश ने एक साल तक कठोर कारावास की सजा सुनाते हुए कहा – यह दंड मैं नहीं दे रहा हूँ, ईश्वर ही दिलवा रहा है।
हम अपने कृत-कारित-अनुमोदित पाप कार्य का फल भुगतने से इस तरह बच नहीं सकते। हमें परमात्मा के साथ अच्छाइयों का कर्त्ताभाव जोड़ना चाहिए, बुराइयों का कर्त्ताभाव नहीं। रत्नाकर द्वारा यह पूछे जाने पर कि मेरे द्वारा किये जाने वाले डाकागिरी के अपराध में यदि मैं पकड़ा जाऊँ तो मेरे साथ जेल में सजा भुगतने को कौनकौन तैयार हैं, सभी घर वालों के द्वारा मुकर जाने पर रत्नाकर को जीवन का सच्चा आत्म-ज्ञान हो गया और वह रत्नाकर से वाल्मीकि बन गया। एक आदर्श ब्रह्मवेत्ता, एक आदर्श महर्षि ।
हम या तो अपनी अच्छाई और बुराई का कर्त्ता स्वयं को माने या फिर अकर्ता-भाव में स्वयं को संयोजित करते हुए परमात्मभाव को प्राथमिकता दें। अपनी सफलता को परमात्मा की कृपा मान लिया जाए तो हमारी यह सफलता, हमारी ओर से परमात्मा को भावभरा अर्घ्य चढ़ाने के समान है। कर्ता-भाव से छुटकारा ही जीवन में
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