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तो फिर प्रतिदिन प्रतिछिन मेरे, नवोत्सर्ग का एक पर्व हो। मेरे उठे हुए चरणों में, नव आशा हो, दिव्य गर्व हो। एक-एक कामना अर्घ्य हो, कर्म-कर्म मेरा तर्पण हो। अधिक पूर्णतर औ, विशालतर, दिन-प्रतिदिन मेरा अर्पण हो॥ जो सागर-सा शान्त, गगन-सा, नीरव औ, निःशब्द गभिर हो। जो भीतर से अति सक्रिय हो,
और बाहर से मूक बधिर हो॥ जिसके पग की चाप-चाप पर, और किसी का सुनियंत्रण हो। और कर्म की श्वास-श्वास पर, रूपांतर की लगी मुहर हो॥ डूब गया है मेरा सब कुछ, अविचल एक शांति-सागर में। देख रही है आँखें तुमको, ही तुमको, चर और अचर में॥ जान गया हूँ मैं इस जग में, इक तुम ही तुम तो जीते हो। इन सब रूपों-आकारों के, पीछे तुम-ही-तुम बसते हो॥
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