Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 49
________________ जन्म लेना पड़ता है। हर बार नये कर्म बँध जाते हैं। मनुष्य अपने एक जन्म में इतने संकल्प-विकल्प कर लेता है कि उनकी आपूर्ति के लिए पूरे सौ जन्म तक लेने पड़ जाते हैं। जब एक जन्म में नये सौ जन्मों की हैसियत है तो सौ जन्मों में भी वैसे ही वैर - विरोध, राग-विकार होते रहे तो न जाने कितने नये जन्मों की संरचना होगी ? मनुष्य-जीवन का फूल सौभाग्य से ही खिलता है । धरती पर इतनी प्राणी - जातियाँ हैं, पर मनुष्य अपने स्वभाव से बढ़कर भी अपने में सम्भावनाओं को लिये रहता है । यों यहाँ मानवीय अथवा प्राणीमूलक जितने भी भेद-उपभेद दिखाई देते हैं, वे सब अपने ही अनर्गल संस्कारों के साकार रूप हैं, अपने ही किये-कराये कर्मों के परिणाम हैं। भले ही कोई किसी जाति विशेष से नफ़रत करे, पर यह बहुत कुछ सम्भव है कि हम भी कभी उस जाति में जन्मे, जिये हों। हर जाति कर्म की जाति है, हर योनि कर्म की योनि है। बीज निमित्त बनता है, योनि जन्म देती है । जाति अपने संस्कारों को उसमें स्थापित करती है । अच्छी संभावनाएँ हर जाति, हर योनि में हैं । पशु-योनि ग़लत कर्मों का परिणाम होने के बावजूद पशुओं में भी कुछ ऐसी सौभाग्यशाली संभावनाएँ होती हैं कि वे भी मानवजाति के द्वारा इज़्ज़त और मोहब्बत पा लेते हैं। ग़लत संभावनाएँ मनुष्य - योनि में भी हैं। हमारी आन्तरिक स्थिति तो देखो, हम मनुष्य - जन्म पाकर भी पशुता का आचरण कर जाते हैं, शायद किसी दृष्टि से तो पशु से भी बदतर हो जाते हैं । हम पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं, हमें यह बोध निरन्तर रखना चाहिए। पशु का काम सींग मारना है, मनुष्य का धर्म मारने की भावना से ऊपर उठना है। हम किसी बगुले को तीर का निशाना बनाने की बजाय उसे 48 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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