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वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों पर निरन्तर ध्यान देना चाहिए ताकि नये कर्मों की पथरीली परतें निर्मित न हों और पूर्वकृत कर्मों को हम भीतर के शिखर पर बैठकर ध्यानपूर्वक देखें, समझें, बोधपूर्वक भोगें, क्षय करें ।
मनुष्य एक मन्दिर है और जीवन एक तीर्थयात्रा, आत्मा इस मंदिर की जीवंत मूर्ति है, पर स्वयं को मन का गतानुगतिक और आपूर्ति का पर्याय बना लिये जाने के कारण ही जीवन का सत्य हर मूल्य से नीचे गिर गया है ।
मनुष्य चाहे कितना भी गलत से गलत काम क्यों न करे, पर एक बार तो उसकी अन्तरात्मा उसे ग़लत राह पर चलने से अवश्य टोकेगी । इसीलिए कहा जाता है कि तुम अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनो। क्योंकि अंतरात्मा की आवाज़ में परमात्मा की आवाज़ छिपी है। मनुष्य अपने मन के प्रभाव में अंतरात्मा की आवाज़ पर गौर नहीं करता। देह-भाव और परिस्थितियों से मज़बूर होकर वह अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ को ठुकरा देता है। वह उस पर ध्यान नहीं देता और ग़लतियों पर ग़लतियाँ दोहराता रहता है, ठोकर पर ठोकर खाता रहता है । यही मनुष्य का अज्ञान है और शायद यही उसकी कर्मनियति ।
काम चाहे ग़लत हो या सही, उसे करने वाला मनुष्य स्वयं है, न कि कोई और सत्ता । जब हम अपने किसी श्रेय को परमात्मा पर डालते हैं, तो उसका कारण यह नहीं है कि वह काम परमात्मा ने करवाया वरन् इसलिए कि उस सफलता के कारण हममें अहं - भाव न आ जाए कि यह काम मेरे कारण हुआ । मैं ही था जो सफल हो गया। आत्मअहंकार से बचने के लिए ही परमात्म-कर्तृत्व को स्वीकार किया
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