Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 26
________________ आत्म-मित्र होना चाहिए। जिसका अपने-आप पर विश्वास नहीं, उसका किसी और पर विश्वास नहीं। वह भला औरों पर क्या विश्वास करेगा जो खुद पर ही विश्वस्त नहीं है। आत्म-विश्वास के अभाव में व्यक्ति खुद भी विश्वनीय नहीं रहता। आत्म-भाव का सर्वोदय होने पर ही व्यक्ति अहंकार, मनोविकार और देह-राग के अन्ध-तमस् से बाहर निकल सकता है। अध्यात्म का एक ही लक्ष्य होता है : व्यक्ति आत्म-जागृत हो। खुद को भूल बैठना ही भटकाव की शुरुआत है। खुद को याद रखना ही अनासक्ति और मुक्ति का द्वार खोलना है। सार-सूत्र एक ही है कि हमारा 'मैं', हमारे मनोविकार और मिथ्याचार कम हों। हमारे कदम सदा उस ओर गतिशील रहें जिसे हम स्वर्ग पथ कहते हैं । आत्म-भाव और आत्मविश्वास ही हमें स्वर्ग-पथ और परमात्म-स्वरूप की ओर बढ़ा सकते हैं। जो स्वयं के जीवन को मात्र शरीर के ह्रास और विकास तक ही सीमित रखता है, उसके सुख को ही सुख मानता है, उसके खून के रिश्ते को ही रिश्ता मानता है, उसके लिए अध्यात्म के द्वार-दरवाजे बन्द रहते हैं। सबके बीच रहते हुए भी स्वयं की आत्म-स्मृति बनाए रखना मुक्ति की ओर चार कदम बढ़ाने की तरह है। उन लोगों की मानसिकता संकीर्ण है जो अपने जन्म-मृत्यु के पूर्व और बाद के अस्तित्व पर विश्वास नहीं रखते। आत्म-निश्चय हुए बगैर तो हम सर्वतोभावेन सहज और पवित्र नहीं हो सकते। हम अपने बीबी-बच्चों के छोटे से संसार में ही उलझे हुए रह जाएंगे। जो आँख पूरे आकाश को देख सकती है वही आँख केवल अंगुली को ही देखने में सिमट जाएगी। कभी आत्म-चिंतन करके देखें तो पाएँगे कि संसार में जीव अकेला आता है, अकेला जाता है। सब लोगों के बीच जीने | 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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