Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 25
________________ नरक दोनों ही हमारी अपनी आत्मा के उन्नत या विकृत परिणाम हैं। धरती का हर प्राणी, हर मनुष्य, हर आत्मा श्रेष्ठ और उन्नत स्वरूप को जिए, हम सब एक-दूसरे के हितैषी बनें, स्वर्ग-नरक की अवधारणा के पीछे यही पृष्ठभूमि है। ___ एक सेनापति ने संत के सामने प्रश्न रखा - स्वर्ग-नरक क्या है? संत ने कहा - तुम्हारा परिचय? सेनापति ने कहा - इस देश का सेनापति। संत हँसा। उसने कहा - सेनापति! चेहरे से तो तुम भिखारी लगते हो। यह सुनते ही सेनापति तैश में आ गया। उसने तलवार खींच निकाली। वह वार करने ही वाला था कि संत ने कहा - बुरा लग गया? मैं तो तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था। दो कड़वे शब्द सुनकर क्रोध में आना, यही है नरक। सेनापति बुद्धिमान था। बात समझ गया। ग़लती महसूस होते ही क्षमा माँगने के लिए संत के पैरों में गिर पड़ा - संत ने उसे उठाते हुए कहा – मित्र! यही है स्वर्ग। क्षमा माँगने की विनम्रता प्रस्तुत करना - इसी का नाम है स्वर्ग। क्या आप समझ गए कि स्वर्ग-नरक किसे कहते हैं ? स्वर्ग और नरक दोनों ही जीवन की परछाई की तरह हैं । सुकृत ही स्वर्ग है और दुष्कृत ही नरक। प्रेम और भाईचारा स्वर्ग हैं, क्रोध और वैर-विरोध नरक हैं । इस दृष्टि से व्यक्ति की अपनी आत्मा ही स्वर्ग है और वही नरक। धर्म की श्रद्धा का पहला केन्द्र-बिन्दु मनुष्य की अपनी आत्मा ही है। अच्छे और नेकी के रास्ते पर चलने वाली आत्मा ही व्यक्ति की मित्र है, वहीं ग़लत और बदी के रास्ते पर चलने वाली आत्मा ही व्यक्ति की शत्रु है। इस दृष्टि से व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु है। हमें अच्छाई और भलाई के रास्ते पर चलते हुए स्वयं अपना 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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