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के पूरे इंतज़ाम होने चाहिए। हवा-पानी-भोजन की स्वच्छतासात्त्विकता बनी रहनी चाहिए। कोई भी काम करते समय इतना ज़रूर देख लें कि वह अमानवीय, तामसिक अथवा अहितकर न हो। ऐसा कोई कार्य न करें जिससे स्वयं का तो हित हो पर दूसरे का अहित हो जाए। कार्य वही श्रेष्ठ है जो स्वयं के लिए भी मंगलकारी हो और दूसरों के लिए भी। विचारों में ऊँचाई हो और जीवन में सादगी। कम बोलें, धीरे बोलें, मधुर बोलें। मन को क्रोध की बजाय मैत्री का माधुर्य दें। अहंकार की बजाय विनम्रता का पाठ पढ़ाएँ। प्रपंच की बजाय पारिवारिकता के भाव को विस्तार दें। संग्रह और लोभ के स्थान पर सेवा और दया की भावना रखें। सर्व मैत्री, प्रमोद, करुणा और अनासक्ति ही जीवन को आध्यात्मिक तरीके से जीने के श्रेष्ठ मंत्र हैं।
हम अपने आत्मिक सुख और आन्तरिक पवित्रता के लिए स्वयं तो प्रयास करें ही, परम पिता परमात्मा से भी नैतिक और आत्मिक बल की प्रार्थना करें। परमात्मा सांसारिक और अपवित्र भावों से मुक्त है। वह सद्गुणों का सागर है। परमात्मा के पास देने के लिए है पवित्रता, दिव्यता, शान्ति, शक्ति और संबोधि। वह हमें ऐसी शान्ति, प्रेम और ज्ञान प्रदान करता है जिसका संबंध हमारे अस्तित्व-सुख और आध्यात्मिक विकास से है। परमात्मा के प्रेम की एक किरण, ज्ञान की एक रश्मि, करुणा की दो बूंद भी हमें नौनिहाल कर सकती हैं।
हमें अपना आत्म-बोध कायम रखते हुए परम प्रभु का सदा स्मरण रखना चाहिए। परमात्मा की याद हमें गलत मार्ग पर जाने से रोकेगी
और सही मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देगी। सम्यक् मार्ग पर चलने वाले लोग संसार-सागर पर तैरने वाले दीपक के समान हैं। धरती के सच्चे देवता तो वे ही हैं जो जीवन में दिव्यताओं को आत्मसात् किये रहते हैं। 30/
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