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देवता और राक्षस - दोनों तरह की प्रवृत्ति के लोगों का धरती पर बसेरा है। हमारे बीच ही राक्षस जीते हैं और हमारे बीच ही देवता। जब कोई हर तरह की लाज़-शर्म और मर्यादा को त्यागकर हिंसा और बलात्कार पर उतर आता है, तो लोग कहते हैं - पता नहीं, यह इंसान है या जानवर ! आतंक और क्रूरता पर उतारू हुए लोगों के लिए कहा जाता है - यह शैतान है, राक्षस है। जबकि शान्त, भद्र और बेदाग जीवन देखकर ही हम किसी के प्रति कहा करते हैं - यह आदमी नहीं, देवता है।
देव पूजा जाता है। उसकी संगति तो दूर, दर्शन भी सौभाग्य-वर्धक है। देव-पुरुष हमारे अन्तर्हदय में दिव्यता की एक किरण उतार जाते हैं। देवता वे हैं जिनके पास बैठने मात्र से ही मन की कलुषितता तिरोहित होती है तथा मन को शान्ति और सुकून मिलता है।
मनुष्य भले ही देवता न हो, पर वह देवता हो सकता है। मनुष्य अपने में स्वर्ग को जी सकता है । वह शीलवान्, समाधिवान, प्रज्ञावान् हो सकता है। वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह हो सकता है। स्थितप्रज्ञ, अनासक्त और जीवन-मुक्त हो सकता है। प्रेम, सेवा और करुणा से ओतप्रोत हो सकता है। जातपाँत के भेदभाव से मुक्त होकर सामाजिक समता को जी सकता है। मनुष्य कुछ करना चाहे और कर न पाए, यह नामुकिन है।
हम अपने जीवन को सुधारें, उसे मंगलकारी बनाएँ। धर्मध्यानपूर्वक जिएँ। सुख-शान्ति से जीने के लिए ही धर्म है। मृत्यु के बाद आसमान में बने स्वर्ग को पाने के लिए अथवा पाताल में बने नरक से बचने के लिए धर्माचरण की पहल न करें। नरक और स्वर्ग दोनों हमारे भीतर हैं । भीतर में जल रही आग नरक है, उसे बुझाना धर्म
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