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आज धर्म के नाम पर जो 'धर्म' चलते हैं, वे सब पंथ और सम्प्रदाय हैं। सबकी अपनी-अपनी डफली है और अपने-अपने राग। हमें धर्म के दिखाऊ रूप पर गौर करने की बजाय इसके मूल स्वरूप पर गौर करना चाहिए। पूजा-पाठ करना धर्म का ऊपरी रूप है, वहीं दिल में ईश्वर से प्रेम करना धर्म का सच्चा स्वरूप है। धर्म जीवन में क्षमा, विनम्रता, सरलता, सत्य, त्याग, मर्यादा, अपरिग्रह और अनेकांत के आचरण का नाम है।
जब मनुष्य आत्म-जागृत होता है, तभी जीवन में धर्म का जन्म होता है। अपने प्रति, अपने भीतर बैठी ध्रुवता के प्रति सचेत होने पर ही धर्म ईज़ाद होता है। धर्म या अध्यात्म किसी सुनसान पहाड़ी या नदिया के किनारे वटवृक्ष की छाया में नहीं जन्मते। इनकी जन्मस्थली तो मनुष्य का अन्तरहृदय है। जिनसे हमने जन्म लिया है, जो हमारे सहोदर और स्वजन हैं, उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना धर्म का पहला पाठ है। मनुष्य होकर मनुष्य के काम आना धर्म की दूसरी सिखावन है। अपने मन की कमजोरियों और उसके विकारों पर विजय प्राप्त करना धर्म की बुनियादी नसीहत है।
धर्म मनुष्य की निजी विशेषता और उपलब्धि है। निजत्व से हटा दिये जाने के कारण ही मनुष्य के कल्याण के लिए जन्मा धर्म, खुद मनुष्य के लिए भारभूत बन गया है। लोग पूजा-पाठ और व्रतउपासना तो खूब कर लेते हैं लेकिन अपनी प्रेक्टिकल लाइफ में क्रोध, ईर्ष्या, छल-प्रपंच जैसे पाप भी बेझिझक कर लेते हैं। आज की युवा पीढ़ी धर्म के प्रेक्टिकल स्वरूप में विश्वास करती है, उसके दिखाऊ रूप में नहीं। यदि आप रोज मंदिर नहीं जाते हैं तो इससे भगवान कोई नाराज़ नहीं होने वाले और यदि रोज मंदिर जाते हैं तो भगवान कोई
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