________________
उससे आत्म-निर्मलता, आत्म-शान्ति, आत्म-मुक्ति का प्रतिदिन रसास्वादन होता हो तो वह स्वीकार्य है। अन्तर्मन उज्ज्वल न हो, क्रोध-मान, लोभ-लालच समाप्त न हो, तो उस धर्माचरण का मतलब ही क्या है? दिनभर पूजा-पाठ करते फिरें और व्यावहारिक जीवन में राग-द्वेष के द्वन्द्व खत्म न हों तो पूजा के नाम पर यह केवल पाखण्ड ही हुआ। हम किसी की पूजा-पाठ करते रहने के लिए नहीं जन्मे। हम स्वयं पूज्य-पावन बनें, ऐसा प्रयास हो, पुरुषार्थ हो। हममें भी अमृत-पुत्र बनने की दिव्य सम्भावनाएँ हैं। आप महावीर की संतान हैं, तो महावीर बनिए। राम की संतान हैं, तो मर्यादित रहिए। कृष्ण की संतान हैं तो कर्मयोग कीजिए और नानक के शिष्य हैं तो देश के लिए मर-मिटिए।
सुदूर भविष्य की चिन्ता न करें, अपने आपको स्वस्थ बनाएँ, जीवन को स्वर्ग बनाएँ, आत्मा को आनन्द का अधिष्ठाता बनाएँ। जीवन की तीर्थयात्रा तो जब पूरी होनी होगी, तब होगी। हमारा तो आज जहाँ पड़ाव है, उसको भी तीर्थ मानें और हर पड़ाव को भक्तिभावना से गुंजाएँ, सुख-शान्ति और आनन्द का अमृतपान करें। जीवन एक उत्सव है, इसके हर दिन का सार्थक आनंद उठाएँ।
कैसे जिएँ धर्म को, इसके लिए हम कुछ सूत्र लें -
1. स्वभाव को सरल रखें, सोच को सकारात्मक, वाणी को मधुर रखें और व्यवहार को विनम्र। इन चार बातों में चार वेदों का सार समाहित है।
2. किसी को पीड़ा न पहुँचाएँ। किसी को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप है, वहीं दूसरों को सुख पहुँचाना सबसे बड़ा पुण्य है।
20
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org