Book Title: Dharm me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 19
________________ भूला रहे, पर जब कभी वह वेदना से व्यथित होगा, अपने वालों से चोट खाएगा तो अपने आप से ही पूछेगा कि मैं कौन हूँ? दुनिया मेरे साथ ऐसी बदसलूकी क्यों करती है? मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है? मुझे क्या करना है या क्या होना है? मेरे जीने का लक्ष्य क्या है ? ये प्रश्न, ये जिज्ञासाएँ ही हमारे अन्तरहृदय में धर्म के साथ अध्यात्म को जन्म देती हैं । जिज्ञासा की लौ बुझनी नहीं चाहिए । जिज्ञासा समाधान की तरफ ले जाती है। जिज्ञासा चिन्तन और मनन के द्वार खोलती है । चिंतन से ही चिंता का विलय होता है। चिंतन से ही फिर नये-नये रहस्य पर्त-दर-पर्त खुलते रहते हैं । धर्म का अर्थ है : धारण करना । धर्म मनुष्य को धारण करता है । वह पथहारे को नई दृष्टि और नई रोशनी देता है और उसकी भग्न हुई मानसिक शान्ति को फिर से लौटा देता है । मन की शांति का मालिक बनकर ही मनुष्य देवत्व की ओर बढ़ पाता है । औसत आदमी साक्षर हो जाने के बावजूद, उसे मालूम नहीं है कि वह वास्तव में कौन है और उसकी वास्तविक शान्ति और समृद्धि क्या है? वास्तविक सुखों का उसे बोध नहीं और उन्हें प्राप्त करने का मार्ग भी मालूम नहीं है । सब सुस्त पड़े हैं। अगर दौड़ रहे हैं तो बग़ैर किसी बोध के, पागल - विक्षिप्त की तरह, सांसारिक और भौतिक सुखों के पीछे । उसे सुख का क्षणिक अहसास तो होता है, पर फिर वापस दुःखी का दुःखी । वह शरीर तक जाकर लौट आता है या वहीं रुक जाता है। चाहे स्त्री हो या पुरुष, हम केवल शरीर को न देखें। उसकी आत्मा में भी प्रवेश करें । जीवन सत्यम् शिवम् सुंदरम् का पथिक हो । सत्य ही शिव है, और शिव ही सुंदर है। आत्मा का सौन्दर्य शरीर के सौन्दर्य से ज़्यादा 18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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