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श्री दशलक्षण मण्डल विधान।
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जे जलकायिक जीव ज्ञान बिन दुख लहैं।
इक इन्द्रियके द्वार अतुल विपदा सहैं। तिनको दुखमय जानि मुनि करुणा करै।
तसु प्रसादः झटिति मोक्ष वनिता व ॥२॥ ॐ ह्रीं जलकायिकपरिरक्षणरुपोत्तम क्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। अगनि काय धर जीव एक इन्द्रिय सही।
नाना दुख तन सहै जलैं सब जग मही॥ इन पर करुणाभाव धरै जे भवि सही।
सो ही उत्तम क्षमा मोक्षदाता कही॥३॥ ॐ ह्रीं अग्निकायिकपरिरक्षणरुपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्यं नि.। पवन कायके जीव महा सङ्कट सहैं।
हाथ पांव मुख वचन थकी बाधा लहैं। इनपर करुणाभाव जती धारै सही।
सो ही उत्तम क्षमा कही शिवकी मही॥४॥ ॐ ह्रीं वायुकायिकपरिरक्षणरुपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि. स्वाहा। हरित कायमें प्राणी अति वेदन लहै।
छेदन भेदन कष्ट महा अघ फल सहै। इन पर समता भाव सुखी इनको चहै ।
सो ही उत्तम क्षमा धारी मुनि शिव लहै॥५॥ ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकपरिरक्षणरुपोत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य नि.। थावर के पन भेद · पाप फलते बने।
सूक्ष्म बादर भेद दोय यों जिन भने।
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