Book Title: Dash Lakshan Vidhan
Author(s): Tekchand Kavi
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 25
________________ श्री दशलक्षण मण्डल विधान। [२३ *************************************** आरजव भाव धरै जे प्राणी, तिनके होनहार शिवरानी। दोष भाग तिनतें नहिं छीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा॥ आरजव भाव अमरपद द्यावै, आरजव में औगुन नहिं पावै। कुटिलभाव विष जिन नहिं पीवा, आरजवभाव धरैजे जीवा आरतिको आरजव ही खोवै, आरजव भाव पापमल धोवै। रोग शोक ताको नहिं छीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा। आरजव शुद्धभाव जिन पाया, तिनने लहि पुन, पाप गमाया। अनुभव आनन्द तानै छीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा। आरजवभाव दोष सब खोवै, आरजव कर्म कालिमा धोवै। शुद्ध सुभाव सु तानै लीवा, आरजव भाव धरै जे जीवा॥ आरजवभाव सकलको प्यारा, आरजवभाव भ्रमणते न्यारा। ताकों और रुचे न मतीवा, आरजवभाव धरै जे जीवा। आरजव सुर शिवके सुख ठांने आरजवभाव पूर्व अघभाने। अद्भुत आपापर भिनकिवा, आरजवभाव धरै जे जीवा॥ दोहा अन्तरंग निरदोष के, प्रगटै आरजव भाव। जाके फल मरनौ मिटै, छुटै कर्म को दाव॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम-आर्जव-धर्माङ्गाय-पूर्णाऱ्या नि.। इति उत्तम आर्जव धर्मपूजा संपूर्ण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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